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भाई का घर जगह-जगह पर फूलों की वृष्टि हो रही थी। सुरसुंदरी के नाम का जयजयकार हो रहा था।
रथ राजमहल के प्रांगण में पहुँचा | रत्नजटी रथ में से नीचे उतरा एवं सुरसुंदरी को सहारा देकर नीचे उतारा। उसे लेकर वह राजमहल के मुख्य प्रवेशद्वार में प्रविष्ट हुआ। वहाँ पर रत्नजटी की चारों रानियों ने सच्चे मोती उछालकर दोनों का स्वागत किया।
रत्नजटी ने रानियों के सामने देखा | रानियों की आँखो में उठती जिज्ञासा को पढ़ा... उसके चेहरे पर स्मित उभरा... उसने कहा :
'अपनी प्यारी भगिनी को ले आया हूँ...।' चारों रानियाँ हर्षविभोर हो उठीं। एक के बाद एक सभी रानियाँ सुरसुंदरी के गले मिली।
'ओह, जैसा भाई का रूप है... वैसा ही बहन का रूप है.... एक रानी ने कहा। 'नहीं... नहीं... तुम गलती कर रही हो... मुझसे तो बहन का रूप कहीं ज्यादा सुंदर है... और रूप से कहीं ज्यादा सुंदर तो इसके महान गुण हैं।'
सभी ने महल में प्रवेश किया। रत्नजटी सुरसुंदरी को रानियों के पास छोड़कर अपने कमरे में चला गया। स्नान वगैरह नित्यकर्म से निवृत्त हुआ।
सुरसुंदरी को भी रानियों ने स्नान वगैरह करवाकर सुंदर वस्त्र पहनाये... रत्नजटी आ पहुँचा। उसने कहा : 'अब भोजन कर लें... मैं तो आज बहन के साथ ही भोजन करूँगा।'
'नहीं... भाई को भोजन करवाकर फिर ही बहन भोजन करेगी।'
'वाह... ऐसा कैसे हो सकता है? आज तू पहले-पहल अपने भाई के यहाँ आयी है... मेरी अतिथि है, मेहमान है... तेरे पहले मैं कैसे खाना खा सकता हूँ?'
'भाई के घर में बहन मेहमान नहीं होती। मेहमान तो पराये होते हैं, अपने नहीं। मैं तो घर की ही हूँ न?' __ आखिर जीत सुरसुंदरी की ही हुई। उसने रत्नजटी को खाना खिलाया एवं बाद में चारों भाभी-रानियों के साथ बैठकर उसने भोजन किया । रानियों ने काफी आग्रह कर-कर के सुरसुंदरी को खाना खिलाया।
रत्नजटी ने अपनी रानियों से कहा : 'बहन चाहे यहाँ पर मेहमान के रूप में न रहे... पर तुम उसे थोड़े दिन की मेहमान ही मानना | बहन के साथ जो बातें करनी हो... बहन को जीतना स्नेह देना हो... बहन से धर्म का भी ज्ञान
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