________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भाई का घर
१७० लेना हो... ले लेना । तुम तो सब स्वयं समझदार हो... ज्यादा क्या कहूँ? बहन का मन प्रसन्न हो, प्रफुल्लित रहे... उस ढंग से उसका ध्यान रखना।' ___ 'स्वामिन् आपने हमारी काफी पुरानी इच्छा पूरी की है... हमारी ननद को पाकर हम धन्यता की अनुभूति कर रही हैं... इनकी मुखाकृति ही इनकी गुणों की सूचक है।' __'इसके सुनते हुए यदि उसकी ज्यादा तारीफ की तो यह रूठ जाएगी... इसलिए मैं तुम्हें इसकी अनुपस्थिति में इसकी ढेर सारी विशेषताएँ बताऊँगा...' रत्नजटी हँसता-हँसता वहाँ से चल दिया।
चारों रानियाँ सुरसुंदरी को लेकर उनके भव्य आवास में पहुँची। एक विशाल... सुंदर एवं सुशोभित खंड था। उसके चारों तरफ चार अलग-अलग खंड थे। उन कक्षों के द्वार उस विशाल खंड में आते थे। चारों रानियों के वे चार शयनकक्ष थे। रानियों ने चारों कक्ष बतालाये एवं पूछा : 'बहन, इन चारों में से तुम्हे कौन सा कमरा पसंद है... जो तुम्हे पसंद हो वह मिलेगा!'
'नहीं... नहीं... मेरे लिए यह बीचवाला कक्ष ही ठीक है...'
'ऊँहूँ... बीचेवाले कक्ष में तुम्हें कैसे रखेंगे? चलो, ऊपरी मंजिल पर... वहाँ पर एक सुंदर खंड है...' सुरसुंदरी को ऊपर का कक्ष दिखाया... सुरसुंदरी को वह पसंद आ गया...। उसने कहा : 'बस... यह कमरा ठीक है मेरे लिए। मैं इसी में रहँगी। तुम्हारा मन हो तब तुम ऊपर चली आना... मेरा मन होगा, तब मैं नीचे चली आऊँगी... ठीक है?' 'तुम्हें जो पसंद हो वह हमें मंजूर है...'
रानियों ने एक परिचारिका को सुरसुंदरी के पास नियुक्त कर दिया। कमरे में सभी तरह की सुविधाएँ जुटा दी।
'बहन... अब तुम एकाध प्रहर विश्राम कर लो। लंबी यात्रा करके आयी हो... फिर हम हाज़िर हो जाएँगी।' चारों रानियाँ नीचे चली आयी।
सुरसुंदरी ने जो पहला कार्य किया वह था श्री नवकार महामंत्र का जाप | तन्मय होकर उसने जाप किया एवं फिर निद्राधीन हो गयी... वह जमीन पर ही सो गयी...।
निश्चिंत एवं निर्भय थी न? उसे गहरी नींद आयी... जब वह जगी तब उसके चारों ओर रानियाँ प्रसन्नचित से बैठी हुई थी।
'ओह... तुम कब की आयी हो? कैसी चुपचाप बैठ गयी हो? मुझे जगाना तो था?'
For Private And Personal Use Only