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भाई का घर
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| २६. भाई का घर
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बहन, अपना विमान सुरसंगीत नगर के ऊपर आ गया है। अब मैं विमान को थोड़े नीचे पर ऊड़ाऊँगा। तुझे मेरे सुंदर नगर के दर्शन करवाऊँगा।'
रत्नजटी ने सुरसुंदरी को नगर का दर्शन करवाया। सुरसुंदरी पुलकित होकर प्रसन्नता व्यक्त करने लगी। सचमुच सुरसंगीत नगर रमणीय था । विशाल व स्वच्छ राजमार्ग... एक जैसे भव्य एवं उन्नत महल, उत्तुंग स्तूप... गगन को छूते हुए मंदिरों के शिखर... उन पर लहराती हुई ध्वजाएँ... बड़े लंबे-चौड़े रमणीय उद्यान-बगीचे... नगर की चारों दिशाओं में कलात्मक प्रवेशद्वार!
रत्नजटी ने नगर के बाहरी उद्यान में विमान को उतारा। 'बहन, अब हम रथ में बैठकर नगर में प्रवेश करेंगे। मेरे नगरवासी तेरे दर्शन करके, मेरी भगिनी के दर्शन करके आनंद-विभोर बन उठेंगे।'
'नहीं... नहीं भैया... ऐसा कुछ भी मत करना । मुझ में ऐसी कोई विशेषता है ही नहीं कि लोग मेरे दर्शन करें, मेरा स्वागत करें। मैं तो एक तुच्छ नारी हूँ... अनंत-अनंत दोषों से भरी हुई...'
सुरसुंदरी शरमा गयी। "वह तेरा भीतरी चिंतन है बहन! पूज्य पिता मुनि ने जिसे 'महासती' सन्नारी कहा है... वह मेरे लिए महान है... उत्तम है... पूजनीया है...।'
रत्नजड़ित सुवर्णरथ आ चुका था। रत्नजटी स्वयं रथ के सारथी के समीप में बैठा एवं सुरसुंदरी को भीतर बिठाया। रथ नगर के मुख्य प्रवेशद्वार में प्रविष्ट हुआ। सुरसुंदरी आश्चर्य से चकित रह गयी।
नगर के सभी राजमार्ग सजाए हुए थे। एक-एक महालय के द्वार पर तोरण बँधे हुए थे। हज़ारों सुंदर स्त्री-पुरूष राजमार्गों के दोनों ओर खड़े थे। हाथ ऊँचे कर-करके वे रत्नजटी का जय-जयकार करते हुए अभिवादन कर रहे थे। सुरसुंदरी को लगा कि रत्नजटी ने विमान में से ही विद्याशक्ति के माध्यम से नगर में संदेशा भिजवा दिया था। उसके मन में रत्नजटी के प्रति आदर बढ़ गया। __ प्रजाजन सुरसुंदरी का भी अभिवादन कर रहे थे। सुरसुंदरी स्वयं भी दोनो हाथ जोड़कर, सर झुकाकर, अभिवादन का जवाब दे रही थी। आकाश में से
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