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राज को राज ही रहने दो
१६५ उधर एक बार रानी ने राजा बने हुए कुबड़े से पूछा : 'स्वामिन्, आपका वह कुबड़ा क्यों नहीं दिख रहा है... आज कल? पहले तो बेशरम कितना आता-जाता था!
राजा ने कहा : 'जंगल में जानवर ने उसको मार डाला...' अच्छा हुआ बला टली... कितनी गंदी हरकते करता था, कभी-कभार तो।'
राजा मन में सोचता है : 'बला टली नहीं है... बला तो तुझ पर सवार है... तेरे साथ है... और साथ रहेगा... तुझे अभी पता कहाँ है'
राजा रोजाना अंत:पुर में आता है... घंटो तक वही पड़ा रहता है... राजकाज में ध्यान नहीं देता है... कभी-कभार तो बचकानी हरकते करता है... रानी को ताज्जुबी होने लगी : कुबड़े के मरने के पश्चात महाराजा में बहुत बदलाव आ गया है... उनकी वाणी... उनकी बोलचाल... उनकी भाषा... उनके तौर-तरीके... सब कुछ बदला-बदला-सा लगता है। क्या हो गया है राजा को?'
रानी ने एक दिन महामंत्री मतिसार के समक्ष अपनी उलझन रखी। महामंत्री अनुभवी थे। विचक्षण थे। उन्हें भी राजा का बरताव अजीबो-गरीब तो लग ही रहा था। उन्होंने रानी से कहा : _ 'महादेवी, आप चिंता न करे... कुछ ही दिन में भेद का पता लग जाएगा।' __ महामंत्री को मालूम था कि योगी ने राजा को 'परकाया प्रवेश' की विद्या दी हुई थी। उसके आधार पर उन्होंने कुछ अनुमान लगाया | महामंत्री ने एक दिन राजा से कहा : 'महाराजा, आपके ग्रहयोग अभी ठीक नहीं हैं... अतः राजपुरोहित के कहे अनुसार यदि दानशाला खोल दें, काफी दान-पुण्य करें तो ग्रहदशा सुधर जाएगी।'
राजा ने अनुमति दे दी। महामंत्री ने दानशाला खोल दी। दानशाला में कई तरह के याचक-ब्राह्मण आने लगे। महामंत्री स्वयं उन सबके पैर धोते हैं एवं पैर धोते समय आधा श्लोक बोलते हैं :
'षट्कर्णो भिद्यते मंत्र: कुब्जकान्नैव भिद्यते। इसके बाद सबको भोजन वगैरह करवाते हैं। हज़ारों ब्राह्मण इस दानशाला की प्रशंसा सुनकर दूर-दूर से वहाँ पर आने लगे। विप्र देह में रहा हुआ राजा मुकुंद भी एक दिन अपनी नगरी लीलावती की दानशाला में चला आया ।
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