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राज को राज ही रहने दो
१६३ अलग-अलग तरह की चेष्टाएँ एवं मुँह चिढ़ाना वगैरह करके वह कुबड़ा राजा-रानी का मनोरंजन करने लगा। राजसभा में भी वह आता और रानीवास में भी बेधड़क चला जाता | उसे कही भी जाने की, घूमने की इजाज़त मिल गयी थी।
एक दिन महामंत्री मतिसार गुप्त मंत्रणा करने के लिए राजा के पास आये... राजा के पास कुबड़े को बैठा हुआ देखकर महामंत्री ने कहा :
'महाराज, गुप्तखंड की बातें बाहर के व्यक्ति के कानों पर नहीं पड़नी चाहिए | गुप्त बातें चार कानों तक सीमित रहे, यही अच्छा है। वरना छठे कान तक बात फैलने से कभी मुश्किल पैदा हो सकती है...'
'यह कुबड़ा तो अपना विश्वास-पात्र है... उसके कान पर पड़ी बात गुप्त ही रहेगी...' 'हो सकता है गुप्त रहे... पर... कभी-कभार...'
'चिंता न करें...' राजा ने कुबड़े को दूर नहीं किया। महामंत्री मन मसोसकर रह गये... उन्होंने इधर-उधर की गपशप करके बिदा ली।
एक दिन एक योगी पुरूष राजसभा में आया । वह सिद्ध मांत्रिक था। राजा की सेवा - भक्ति से प्रसन्न होकर उसने राजा को परकाया प्रवेशी विद्या दी। मंत्र देकर वह मांत्रिक वहाँ से चला गया।
राजा जब मंत्र सीख रहा था, उस समय वह कुबड़ा भी वहीं पर बैठा हुआ था। उस योगी के शब्द सुने थे। अब जब राजा रोजाना मंत्रजाप बोलकर करता है... तो उस कुबड़े ने भी वह मंत्र सुन-सुनकर याद कर लिया। राजा को इस बात का ध्यान नहीं रहा... उस कुबड़े पर कोई शंका या संदेह तो था ही नहीं। __ एक दिन राजा घुड़सवारी करता हुआ कुबड़े को साथ लेकर जंगल में वन विहार करने गया । वहाँ किसी ब्राह्मण का शव पड़ा हुआ था। राजा ने वह शव देखा । राजा को 'परकाया प्रवेश' विद्या का प्रयोग करने की इच्छा हुई। उसने कुबड़े से पूछा :
'बोल, मंत्र की महिमा तू सचमुच मानता है या नहीं?' 'नहीं महाराजा, मैं किसी भी तंत्र-मंत्र में बिलकुल भरोसा नहीं रखता।' ‘पर यदि मैं तुझे प्रत्यक्ष मंत्र की महिमा दिखा दूँ तो?'
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