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राज को राज ही रहने दो
१६२ सुरसुंदरी के समग्र चित्ततंत्र पर नंदीश्वर द्वीप छाया हुआ था । मुनिराज के शब्द उसके कानों में रूपहली घंटियों की भाँति गूंज रहे थे : 'अमरकुमार बेनातट में मिलेगा', वह अव्यक्त आनंद की अनुभूति में डूबी जा रही थी कि रत्नजटी ने उसको मनोजगत में से बाहर निकाला : 'बहन एक महत्त्व की बात कहना चाहता हूँ।'
'कहिए न... बेझिझक...'
'मैंने तुझसे पहले भी कहा था कि मेरी चार रानियाँ हैं... तुझ-सी ननद को देखकर वे पगला हो जाएँगी... तुझ से ढेर सारी बाते पूछेगी... परंतु यक्षद्वीप से लेकर यहाँ तक की कोई भी बात उससे कहना मत।' 'क्यों? जो हो चुका है... उसे कहने में एतराज क्या?'
बहुत बड़ा एतराज है... बहन! तुझे नहीं, पर मुझे मेरी प्यारी बहन... तुझे मेरी रानियाँ दुखियारिन समझें... इस पर सबसे बड़ा एतराज है... मेरी बहन को कोई अभागिन समझे या उसकी तरफ दया... करूणा या सहानुभूति के दृष्टिकोण से देखे, यह मुझे जरा भी स्वीकार्य नहीं... मैं इसे पसंद नहीं कर सकता।'
'पर... मेरी दुःखभरी कहानी सुनने के साथ-साथ क्या उन्हें श्री नमस्कार महामंत्र के अचिंत्य प्रभाव की बातें सुनकर नवकार की महिमा पर श्रद्धा नहीं होगी?'
'वह श्रद्धा तो तू किसी अन्य उपाय से भी पैदा कर सकेगी... तेरी निजी बातें सिर्फ मैं और तू - दो ही जानते हैं। निजी बाते छठे कानों तक नहीं पहुँचनी चाहिए। वरना कभी बड़ा अनर्थ होने की संभावना है... देख... मैं तुझे इस बारे में एक कहानी सुनाता हूँ : ___ 'कहो... कहो... समय भी आनंद से जल्दी गुजर जाएगा... और तुम्हारी बात की गंभीरता भी मेरे ख्याल में जम जाएगी।' रत्नजटी ने कहानी शुरू की : लीलावती नाम की नगरी थी।
राजा का नाम मुकुन्द एवं रानी का नाम था सुशीला। एक दिन राजा मुकुन्द अपने सामन्तों के साथ जंगल में सैर हेतु गया था। जब वह वापस लौटा तो रास्ते में नगर के दरवाजे पर एक कुबड़े आदमी को नाचते-गाते हुए देखा। राजा उसे अपने महल में ले गया।
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