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राज को राज ही रहने दो __ 'वत्स, यह जो गुणवती नारी तेरे पास बैठी है... वही सुरसुंदरी है।'
रत्नजटी पल-दो-पल तो स्तब्ध रह गया... गुरूदेव के श्रीमुख से प्रशंसित सुरसुंदरी को उसने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर प्रणाम किया। रत्नजटी हर्ष से गद्गद् हो उठा। 'ओह... मुझे विश्व की श्रेष्ठ नारी बहन के रूप में अनायास प्राप्त हो गयी
सुरसुंदरी ने विनयपूर्वक मुनिराज से पूछा : 'गुरूदेव अभी मेरे पापकर्म कितने बाकी हैं? कहाँ तक मुझे इन पापकर्मों का फल भुगतना पड़ेगा... कृपा करके...
'भद्रे, अब तेरे पापकर्म करीब-करीब भोगे गये हैं... अब जरा भी संतप्त मत बन | बेनातट नगर में तुझसे अपने पति का मिलन हो जाएगा। अब तू निर्भय एवं निश्चित रहना।
'गुरूदेव, आपने मेरे भविष्य का रहस्य खोलकर मुझे आश्वस्त किया... आपने मुझ पर महान उपकार किया है।' सुरसुंदरी ने ज़मीन पर मस्तक लगाकर पुनः वंदना की।
मुनिराज ने रत्नजटी की ओर सूचक दृष्टि से देखा । रत्नजटी ने गुरूदेव की आज्ञा शिरोधार्य की।
'गुरूदेव, आपके गुणनिधि सुपुत्र ने मुझे इस शाश्वत तीर्थ की यात्रा करवाकर मुझपर अंनत उपकार किया है... सही अर्थ में वे मेरे धर्मबन्धु बने हैं...' सुरसुंदरी ने कहा । 'और गुरूदेव,' रत्नजटी का स्वर भावकुता से भीग रहा था, 'आपने जिसका नाम गाया... वैसी महान शीलवती सुरसुंदरी को अपनी धर्म-बहन बनाकर अपने नगर में... मेरे महल में ले जा रहा हूँ... हम सब बहन की भक्ति करके कृतार्थ होंगे... और समय आने पर मैं उसे बेनातट नगर में छोड़ आऊँगा।'
दोनों ने गुरूदेव को भावपूर्ण वंदना की और वे गुफा में से बाहर निकले । रत्नजटी का हृदय प्रसन्नता से छलक रहा था। रत्नजटी को शब्द नहीं मिल रहे थे, सुरसुंदरी की प्रशंसा करे तो भी कैसे करे?
दोनों विमान के पास आये... सुरसुंदरी को आदरपूर्वक विमान में बिठाकर रत्नजटी ने विमान को आकाश में उपर-उपर चढ़ाया... एवं जंबूद्वीप की दिशा में गतिशील बनाया।
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