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राज को राज ही रहने दो
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२७. राज़ को राज़ ही रहने दो saniy
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सौम्य मुखाकृति! संयम-सुवासित देहयष्टि! तप के तेज से चमकती आँखें! दिव्य प्रभाव का उजाला फैलाता हुआ आभा - मंडल! 'मणिशंख' मुनिराज के दर्शन कर के सुरसुंदरी के नयन उत्फुल्ल हो उठे। उसका हृदय-कमल खिल उठा!
रत्नजटी एवं सुरसुंदरी ने सविधि वंदन की। दोनों मुनिराज के सामने विनयपूर्वक बैठ गये | मुनिराज ने धर्मलाभ का गंभीर स्वर में आशीर्वाद दिया। दो पल आँखें मूंद दी... एवं अमृत-सी मधुर वाणी की मंदाकिनी प्रवाहित होने लगी। ___ 'महानुभाव! धर्म का प्रबल पुरूषार्थ करके इस मनुष्य जीव को सफल बना लेना चाहिए। तुम्हें मैं ऐसे पाँच प्रकार बतलाता हूँ धर्म के, जिसका कथन सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा ने किया है।
दया, दान, देवपूजा, दमन एवं दीक्षा-इन पाँच प्रकार का धर्म-पुरूषार्थ करनेवाला मनुष्य सुख-शांति को प्राप्त करता है... आत्मा को पावन करता हुआ परमात्मा के निकट ले जाता है एवं अंत में निर्वाण को भी प्राप्त कर लेता
__ मनुष्य यह धर्म-पुरूषार्थ तब ही जाकर कर सकता है जबकि वह अप्रमत्त बने... प्रमाद का त्याग करे... विषयोपभोग एवं कषाय परवशता का त्याग करे। चूंकि ये दोनों सबसे बड़े प्रमाद हैं... और प्रमाद आत्मा का भयंकर एवं सबसे बड़ा शत्रु है।
जिनेश्वर भगवंतो ने दान, शील, तप एवं भाव इस तरह चार को धर्मपुरूषार्थ भी बतलाया है। यह चतुर्विध-धर्म गृहस्थ-जीवन का श्रृंगार है... शोभा है... उसमें भी शीलधर्म तो सर्वोपरि है। रत्नजटी, सुरसुंदरी की भाँति शीलधर्म का निर्वाह करनेवाला मनुष्य परम सुख को प्राप्त करता है।'
'गुरुदेव, यह सुरसुंदरी कौन है?'
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