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नई दुनिया की सैर 'जो भी हो सो अच्छे के लिए | मुझे लगता था कि मेरे पति ने मेरा त्याग करके मुझे दुःख के सागर में धकेल दिया।' ___ 'चूंकि, तूने हमेंशा सुख की बजाय शील को बड़ा किमती माना है। तू आदर्शनिष्ठ नारी है। किसी न किसी आदर्श को दिल में स्थापित करके उस मुताबिक जीवन जीनेवालों को अनेक आपत्तियों का सामना करना ही पड़ता है। यदि तूने सुख से ही प्यार किया होता तो तुझे ये सारे कष्ट उठाने पड़ते क्या? क्या धनंजय तुझे सुख देने के लिए तैयार नहीं था? क्या फानहान तुझे अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए तैयार नहीं था? किसलिए तूने उन सबका तिरस्कारपूर्वक त्याग किया? तेरे मन में सुख की स्पृहा से भी कहीं ज्यादा शील धर्म की रक्षा का विचार प्रबल था।'
'उस धर्म के प्रभाव से हीं तो आज मैं इस दिव्य सुख को पा सकी हूँ! वरना मुझ जैसी साधारण स्त्री के नसीब में नंदीश्वर द्वीप की यात्रा हो ही नहीं सकती?' 'और मुझे किस धर्म के प्रताप से ऐसी शीलवंत बहन मिली?'
'तुम्हारे पिताजी के द्वारा तुम्हें प्राप्त हुए ऊँची कक्षा के संस्कार... यह क्या मामूली धर्म है?'
'प्यारी बहन! पिता मुनिराज मात्र घोर तपस्वी ही नहीं हैं... वे विशिष्टज्ञानी महात्मा भी हैं... कभी-कभार उनके दर्शन-वंदन करके, उनका धर्मोपदेश सुनकर असीम आत्म-तृप्ति प्राप्त करता हूँ।'
'तुम सचमुच महान् पुण्यशाली हो, भाई! ऐसे शाश्वत तीर्थ की अनेक बार यात्रा करने का पुण्य अवसर तुम्हें मिलता है... पिता मुनिवर के दर्शन-वंदन करने की भी भावना तुम्हारे दिल में उठती है। ऐसे उत्तम पुरूषों के दर्शन मात्र से जीवात्मा के पाप नष्ट हो जाते हैं। ऐसे निष्कारण-वत्सल महात्माओं के दो शब्द भी मनुष्य की ज्ञानदृष्टि को खोलने में सक्षम बन जाते हैं।' 'तो अब अपन उन महात्मा के चरणों में चलें?' 'हाँ... उनके दर्शन-वंदन करके पावन बनें।'
दोनों विमान में अपने-अपने स्थान पर विराजमान हो गये। विमान उड़ा। एक अत्यंत रमणीय भू-भाग पर विमान को धीरे से उतारा रत्नजटी ने । सृष्टि का श्रेष्ठ सौंदर्य मानो इस जगह पर नृत्य कर रहा था।
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