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नई दुनिया की सैर
१५७ मधुर, अर्थगंभीर एवं भावसभर शब्दों में उसने स्तुति प्रारंभ की।
विश्वाधार! जिणेसरू! निर्भय! परमानंद! रूपातीत! रसादतीत! वर्णातीत! जिणंद! स्पर्श-क्रियातीतं नमो! संगविवर्जित सर्व! निरहंकार-मलक्षय! सादिनान्त! गतगर्व! कर्माष्टक-दल पंक्तिभेतृः! -वीर्यानन्त! पसत्थ!
अकलामल! निष्कलंक! तात! नौमि प्रलब्धमहत्थ! सुरसुंदरी ने विधिवत् भावपूजा की। चारों जिनमंदिरो में जाकर उसके दर्शन से अपनी आँखों की प्यास बुझायी। स्तुति करके अपनी जिह्वा को धन्य कर दिया। ___ वहाँ से विमान में बैठकर दधिमुख पर्वत पर जाकर सोलह जिनमंदिर की यात्रा की। सुरसुंदरी का हर्ष... उल्लास, आनंद पल-पल उफन रहा था दिल के सागर में!
रतिकर पर्वत के बीस जिनमंदिरों की यात्रा की। सुरसुंदरी कृतार्थता से छलाछल हुई जा रही थी। विमान के निकट आकर उसने भरी-भरी आवाज में कहा :
'आज मैं उनका आभार व उपकार मान रही हूँ, भैया ।' 'उनका यानी किसका?' 'जो यक्षद्वीप पर मेरा त्याग करके चले गये... उनका?' 'ओह... अमरकुमार का?'
'हाँ... उन्हीं का | वे जो यदि मेरा त्याग न कर गये होते, तो तुम कहाँ से मिलते? और यदि तुम नहीं मिलते तो नंदीश्वर द्वीप की यात्रा का सद्भाग्य... इतनी महान् यात्रा करने का परम सौभाग्य मुझे मिलने वाला कहाँ था?'
'बहन! 'जो होता है सो अच्छे के लिए | ऐसा ज्ञानी पुरूषों ने कहा है न?'
'कहा है! परंतु अच्छा नहीं होता वहाँ तक..., जो अधीरता उफनती है... वह जीवात्मा को न किये जानेवाले विचारों में डूबो देती है। यक्षद्वीप पर छोड़ने के बाद एक के बाद एक जो घटनाएँ मेरे आस-पास पैदा हुई... वे सब कितनी दुःखद थी। कितनी सारी डरावनी थी। उस समय मैं सोच ही नहीं सकती कि
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