________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नई दुनिया की सैर
१५६ ____ 'मेरा तो जीवन धन्य हो गया । मैं तुम्हारा यह उपकार इस जन्म में तो क्या जनम-जनम तक नहीं भूला पाउँगी।' ___ 'ऐसा मत बोल । इसमें उपकार क्या बहन! यह तो मेरे जैसे भाई का फर्ज़ है। तेरे जैसी बहन के लिए तो सब कुछ करने के लिए मन लालायित है।'
सुरसुंदरी... हर्ष भरे-पूरे नयनों से रत्नजटी की ओर देखती रही। 'नंदीश्वर द्वीप आ गया! मैं विमान को नीचे उतार रहा हूँ।'
रत्नजटी ने विमान को धीरे से नीचे उतारा । एक स्वच्छ भूमि पर विमान को स्थिर किया। रत्नजटी व सुरसुंदरी दोनों विमान में से नीचे उतरे | रत्नजटी ने सुरसुंदरी से पूछा : ___'बहन, तेरी क्या इच्छा है? पहले जिनमंदिरों की यात्रा करना है या फिर पहले गुरूदेव मणीशंख मुनिवर के दर्शन करने चलना है?
'पहले शाश्वत जिनमंदिरों के दर्शन करें... शाश्वत जिनप्रतिमाओं की वंदना करें... और तत्पश्चात् गुरूदेव के चरणों में चलें। ठीक है न भाई?'
'जैसी तेरी इच्छा यहाँ पर कुल बावन जिनमंदिर हैं। 'अंजनगिरि' पर चार जिनमंदिर हैं... 'दधिमुख' पर्वत पर सोलह जिनप्रासाद हैं, जबकि 'रतिकर' पर्वत पर बीस जिनालय हैं।'
'तुमने बिलकुल सही संख्या बतायी... अब मैं उन जिनमंदिरों की लम्बाईचौड़ाई बता दूँ?'
'बोल!'
'जिनमंदिर सौ योजन लंबे हैं... पचास योजन चौड़े हैं... एवं बारह योजन ऊँचे हैं।'
'बिलकुल सच | बहन... तेरा श्रुतज्ञान वास्तविक है। अब अपन विमान से उन पर्वतों पर चलें। पहले, चल तुझे अंजनगिरि पर ले चलूँ ।'
दोनों बैठ गये विमान में। कुछ ही देर में अंजनगिरी पर पहुँच गये । अंजनगिरि पर के अत्यंत आलीशान व मनोहारी जिनमंदिर देखकर सुरसुंदरी का मनमयूर नाचने लगा।
विधिपूर्वक उसने जिनमंदिर में प्रवेश किया... शाश्वत जिनप्रतिमा के दर्शन किये... उसकी आँखें हर्ष के आँसू से छलक उठे... अनिमेष आँखों से वह जिनेश्वर भगवान को निहारती रही।
For Private And Personal Use Only