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छोटी सी बात
सुरसुंदरी की आँखे छलकने लगी। वह फफक-फफक कर रो दी। मन-हीमन बोलने लगी।
'नहीं, नहीं, मैं अमर से माफी माँग लँगी : उसके पैरों में गिरकर क्षमा माँग लूंगी। वह मेरी ओर न देखे तो मैं जी के भी क्या करूँ? वह मुझसे नहीं बोलेगा तो मैं खाना नहीं खाऊँगी। वह मुझ पर गुस्सा करेगा तो करने दूंगी उसे गुस्सा! वह मुझे लताड़ेगा तो भी मैं सह लूँगी, सुन लूँगी चुपचाप । मेरा अपमान करेगा तो भी कुछ नहीं कहूँगी उससे अब कभी भी। पर अमर के बिना मैं नही रह सकती | मैंने तो उसे अपने मनमंदिर का देवता बना रखा है। उसके बिना तो मैं...
मुझे श्रद्धा है मेरे अमर पर | वह मुझे नहीं भूल सकता। मेरी गलती वह भूल जायेगा। वह मुझे जरूर पहले की तरह मुस्कराते हुए बुलायेगा, हमारी मैत्री नहीं टूट सकती। किसी भी कीमत पर मैं नहीं टूटने दूंगी हमारी दोस्ती को। हमारी दोस्ती तो सदा-सदा के लिए है।'
। दूसरे दिन जब सुरसुंदरी पाठशाल में आयी तब पढ़ाई शुरू हो गयी थी। पंडितजी सुबुद्धि अध्ययन करवा रहे थे। सुरसुंदरी ने पंडितजी को नमस्कार किया और वह अपनी जगह पर जा बैठी।
उसने अमरकुमार की ओर देखा... और उसके दिल में वेदना की कसक उठी। अमर का चेहरा मुरझाया हुआ था। उसकी आँखें जैसे बहुत रोयी हों, वैसी लग रह थी। उदासी छायी हुई थी उसके चेहरे पर | अमर की नजर पंडितजी की तरफ ही थी। सुरसुंदरी की आँखे भर आयीं, पर तुरंत उसने वस्त्र से आँखें पोंछकर पंडितजी की ओर ध्यान दिया। पर उसका मन और उसके नयन बार-बार अमर की ओर घूम रहे थे। अमर की निगाहें स्थिर थी पंडितजी की तरफ हालाँकि उसके दिल में तो सुरसुंदरी छायी हुई थी, पर उसका संकल्प था सुरसुंदरी की ओर नहीं देखने का। वह बराबर अपनी आँखों को रोक रहा था।
मध्याह्नकालीन अवकाश हुआ | पंडितजी अमरकुमार को पाठशाला सौंपकर चले गये अपने घर | कुछ दिनों से पंडितजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था।
अमरकुमार मौन था। रोज बराबर बातें करनेवाला अमर आज खामोश था। उसकी चुप्पी ने सभी छात्र-छात्राओं को व्यथित कर रखा था। सुरसुंदरी
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