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नई दुनिया की सैर
१५४
विमान 'लवणसमुद्र' पर से गुजर रहा था। नीचे पानी ही पानी ... । सुरसुंदरी उस अपार अनंत जलराशि को अपलक निहारती ही रही। इतने में रत्नजटी ने कहा :
'अरे... इस समुद्र में क्या खो गयी ? इससे भी बड़े-बड़े, लंबे-चौड़े ... समुद्र हमको पार करने हैं । '
'वह तो है ही... कालोदधि सागर तो आठ योजन का है न?' 'तुझे तो द्वीप समुद्र की लंबाई-चौड़ाई भी याद है .... कमाल है! ' ‘मैंने अपने पिता के घर यह सारा अध्ययन किया हुआ है न?' 'इधर देख बहन, अपन अब 'घातकी खंड' के ऊपर से उड़े जा रहे हैं । ' 'यह भी जंबूद्वीप के जैसा मनुष्य क्षेत्र है... पर यहाँ की दुनिया तो निराली है...।'
विमान अति वेग से घातकी खंड को पार कर गया और कालोदधि सागर पर उड़ान भरने लगा । सुरसुंदरी तो जैसे अपने सारे दुःख भूल गई थी.... उसके मुँह पर का विषाद पिघलकर बह गया था। जैसे ही विमान कालोदधि को पार करके ‘पुष्करवर द्वीप' के आकाश मार्ग में प्रविष्ट हुआ कि सुरसुंदरी बोल उठी 'यह है 'पुष्करवर द्वीप' इसके आधे हिस्से में ही मानव सृष्टि है... आधे में नहीं। बराबर न?' उसने रत्नजटी के सामने देखा ।
'सही बात है तेरी... अब अपन मनुष्य-क्षेत्र के बाहरी इलाके पर से उड़ान भरेंगे।'
पुष्करवर द्वीप पर से विमान ने पुष्करवर समुद्र में प्रवेश किया। रत्नजटी ने सुरसुंदरी से पूछा :
बहन, मैं एक विवेक तो भूल ही गया । '
'वह क्या ?'
'तुझे भोजन के बारे में तो पूछा ही नहीं?'
'मुझे भूख-प्यास सताती ही नहीं । ऐसी यात्रा में खाना-पीना याद ही नहीं आता। कितनी अद्भुत यात्रा हो रही है अपनी | ओह, देखो तो सही, अपन अब वारूणीवर द्वीप पर आ पहुँचे ।'
'हाँ... यह वारूणीवर द्वीप ही है... यहाँ मानवसृष्टि नहीं है । '
'अब तो किसी भी द्वीप पर मानवसृष्टि नहीं है ।' मानवसृष्टि तो ढाई द्वीप में ही होती है।'
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