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आदमी का रूप एक सा!
१४५ 'आपकी कृपादृष्टि हो, फिर मुझे कुशलता ही होगी न?' सुरसुंदरी ने आँखें मदनसेना की ओर रखकर जवाब दिया। 'स्वामिन्, आपकी इच्छा सफल होगी।' 'क्या तू ने सुरसुंदरी के साथ बात कर ली?' 'हाँ... कर ली बात तो। पर आपको तीन दिन ज़रा सब्र करना होगा।' 'अरे, तीन दिन क्या तेरह दिन भी मैं सब्र कर सकता हूँ सुंदरी के लिए!'
'बस, तो फिर एक पक्की! अब आप मेरे शयनगृह में पधारें। सुरसुंदरी को अभी ज्यादा आराम की आवश्यकता है।' ___ मकरध्वज को लेकर मदनसेना अपने शयनकक्ष में चली गयी। सुरसुंदरी ने अपने कमरे के दरवाज़े बंद किये।
नई आफत से छुटकारा पाने का आनंद सुरसुंदरी को आश्वस्त कर रहा था। वह पलंग में लेटी... पर 'यहाँ से वापस जाऊँगी कहाँ? फिर डरावने जंगल...। हाय... कितनी बदकिस्मती है मेरी...? न जाने कब यह सब दूर होगा?'
अस्वस्थ मन को पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लगाती हुई वह नींद की गोद में सरक गयी।
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