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आखिर 'भाई' मिला!
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२३. आखिर 'भाई' मिल गया Unity
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घनी अँधेरी रात थी। डरावना जंगल था।
सनसनाती हुई सर्द हवा के साथ खड़कते पत्तों की आवाज भी वातावरण को भयानक बना रही थी।
निपट अकेली सुरसुंदरी अनजान रास्ते पर बेतहाशा दौड़ी जा रही थी। उसे अपने विनश्वर प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं थी, वह चिंतित थी केवल अपने शीलधर्म की रक्षा के लिए | खुद की जिंदगी के प्रति वह बेपरवाह हो चूकी थी। उसकी तमाम सुख की इच्छाएँ दुःख के दावानल में राख हो चूकी थी। उसने दो-दो बार मौत के मुँह में जाने के कोशिश की, पर मौत उससे कतराती रही। चाहने पर भी मृत्यु उसे मिल नहीं पा रही थी।
कुछ देर चलती... कुछ देर दौड़ती... सुरसुंदरी एक विकट अटवी में भटक गई, रात का दूसरा प्रहर पूरा हो चूका था। वह थक गई थी। कहीं सुरक्षित जगह मिल जाए तो आराम करलूँ।' सोच रही थी कि एक आवाज़ उभरी : 'कौन है? जो भी हो... वह खड़े रहना।' और जैसे ज़मीन में से फूट पड़े हो, वैसे अचानक दस बारह लुटेरों ने आकर सुरसुंदरी को घेर लिया। सुरसुंदरी डर के मारे काँप उठी एक लुटेरा आया... सुरसुंदरी के समीप आकर टुकुरटुकुर उसे देखने लगा। सुरसुंदरी के सौदर्य का नशा उस पर चढ़ने लगा। ___ 'दोस्तो, हूर है हूर... यह तो! बिलकुल परी जैसी सुंदरी है! वाह! क्या माल मिला है? आज और तो कुछ नहीं मिला... पर अफ़सोस नहीं, यह तो सब से क़ीमती माल मिल गया।'
'तब तो आज रात हम कहीं नहीं जाएँगे... यहीं पर इस सुंदरी के साथ... ही रात...।'
'चुप मर... यह परी अपने लिए नहीं है... अपने मालिक के लिए है। पल्लीपति को भेंट देंगे तो वह बड़े खुश होंगे।' ____ 'तो फिर ले चलो इसे पल्लीपति के पास! लुटेरों के अगुआ ने सुरसुंदरी का हाथ पकड़ा। सुरसुंदरी ने झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। उसने कहा : 'मुझे छूना मत। मैं तुम्हारे साथ चल रही हूँ।'
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