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आदमी का रूप एक सा!
१४४ स्थान में आ फँसी हो? महाराजा तुझे रानी बनाने का इरादा कर रहे हैं।'
'नहीं... नहीं, यह कभी नहीं हो सकता... महारानी!' 'यह तो मैं समझ चुकी हूँ| तू दाँतो तले जीभ दबाकर मर जाएगी... पर राजा की इच्छा के अधीन नहीं होगी।'
'अब तो वैसे भी जीने की मेरी इच्छा ही नहीं है... जीकर करूँ भी क्या? पर मौत भी कहाँ आती है? मरने जाती हूँ तो किसी न किसी बहाने बच जाती
'इतनी निराश मत हो। नवकार मंत्र के प्रभाव से तू अपने पति से ज़रूर मिलेगी।'
‘कैसे मिल सकूँगी? मैं यहाँ फँस जो गयी हूँ।' 'इस आफत से तो मैं तुझे छुड़वा दूंगी... सुंदरी।'
"क्या कह रही हो, देवी! तो, तो मैं आपका उपकार कभी नही भूलूँगी... मेरे पर कृपा करो... मुझे यहाँ से मुक्त कर दो।' 'धीरे बोल... दीवार के भी कान होते हैं।' सुरसुंदरी की दुविधा दूर हुई। वह मदनसेना के निकट जाकर बैठी। 'देख, बराबर ध्यान से सुन । अभी यहाँ महाराजा आएँगे। इस वक्त तो मैं यहाँ पर हूँ तो तू निश्चिंत है। महाराजा को अपने कक्ष में ले जाऊँगी। वे दूसरा प्रहर पूरा होने के बाद अपने शयनकक्ष में चले जाएंगे। इसके बाद मैं तेरे पास आऊँगी।'
मैं तेरे कमरे के दरवाज़े पर तीन बार दस्तक दूंगी। तू धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर सरक आना | चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चली आना | मैं तुझे इस महल के गुप्त दरवाज़े में से बाहर निकाल दूंगी। फिर किले के गुप्त दरवाज़े से बाहर निकलवा दूँगी। बस, फिर तू जंगलों में खो जाना। तेरा नवकार मंत्र तेरी रक्षा करेगा।'
सुरसुंदरी तो सुनकर हर्ष विभोर हो उठी। इतने में राजा मकरध्वज आ गया। 'आइये स्वामी ।' मदनसेना ने स्वागत किया। 'क्यों सुरसुंदरी कुशल तो है न?'
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