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आदमी का रूप एक सा!
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असहाय रूपवती नव-यौवना! निराधार लावण्यमयी ललना!
शायद ही किसी विरले आदमी की आँखें उस युवती में भगिनी का निर्मलदर्शन कर सकती है। कोई-कोई महापुरूष ही उस ललना में जननी के मातृभाव के दर्शन कर सकते हैं। उसके सहायक बनते हैं। उसका आधार बनते हैं।
राजा मकरध्वज की विकारी आँखें सुरसुंदरी की देह पर बरफ पर फिसलती बारिश की तरह फिसल रही थी। सुरसुंदरी के नयन निमीलित थे।
'अन्नदाता, हम लोग आपके लिए एक बढ़िया उपहार के तौर पर इस सुंदरी को ले आये हैं। धीवरों के सरदार ने राजा को नमस्कार कर के कहा।
'वाह! क्या शानदार भेंट तुम लोग लाये हो मेरे लिए... जाओ... तुम सबको एक-एक हज़ार सुवर्ण मुहरें पुरस्कार के रूप में मिल जाएगी।'
राजा ने अपने कोषाध्यक्ष से कहा। कोषाध्यक्ष ने तुरंत हर एक धीवर को एक-एक हज़ार सुवर्ण मुहरें देकर बिदा किया। धीवर खुश होकर नाचतेकूदते हुए गये।
राजा सुरसुंदरी को लेकर राजमहल में आया। उसने परिचारिका को बुलाकर सुंदरी को स्नान वगैरह करवाकर सुंदर वस्त्र व कीमती गहनों से उसे सजाने का आदेश किया।
परिचारिका सुंदरी को लेकर गयी स्नानगृह में, 'तूं स्नान वगैरह कर लो... मैं तुम्हारे लिए वस्त्र आभूषण लेकर अभी आयी वापस ।'
सुरसुंदरी ने मौन रहकर स्नानगृह में जाकर स्नान कर लिया। परिचारिका द्वारा दिये गये सुंदर वस्त्र उसने चुपचाप पहन लिए । गहने पहनने से उसने इन्कार कर दिया... 'मैं गहने नहीं पहनती!' परिचारिका ने आग्रह किया, पर सुरसुंदरी ने मना किया। परिचारिका सुरसुंदरी को लेकर राजा के पास आयी।
'अब इसे सबसे पहले भोजन करवा दे, ऐसा कर, इसके लिए भोजन की थाली यहीं पर ले आ ।' परिचारिका को राजा ने आज्ञा दी। परिचारिका चली
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