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आदमी का रूप एक सा!
१४० गई, भोजन लाने के लिए। राजा वासना का ज़हर आँखों में भरकर सुरसुंदरी के देह पर छिड़कने लगा। उसकी आँखों में सुरसुंदरी का अनिंद्य सौंन्दर्य उन्माद जगा रहा था। 'तेरा नाम क्या है?' 'सुरसुंदरी।'
'अरे वाह! है भी कितनी सुंदर! देवलोक की अप्सरा तो देखी नहीं, पर तुझसे ज्यादा सुंदर तो नहीं हो सकती।'
सुरसुंदरी सावधान हो उठी। 'मैं यहाँ वापस फँस गयी हूँ...' उसे अंदाज़ लग गया। परिचारिका भोजन का थाल लेकर आयी। सुरसुंदरी क्षुधातुर तो थी ही। उसने खामोश रहते हुए भोजन कर लिया।
'तू बहुत थकी-थकी लग रही है... एक दो प्रहर आराम कर ले।' राजा ने परिचारिका की ओर देखकर कहा : 'इसको अंत:पुर में ले जा। पटरानी के कक्ष के पासवाले कमरे में इसे आराम करवाना। इसे किसी भी तरह की तकलीफ न हो, इसका ख्याल करना।' ___ 'जी,' कहकर परिचारिका सुरसुंदरी को अपने साथ लेकर चली गयी अंतःपुर में। राजा के निर्देश अनुसार परिचारिका ने कमरा खोल दिया । आवश्यक सुविधाएँ जुटा कर परिचारिका ने सुरसुंदरी की तरफ देखा। ____ 'मैं दो प्रहर तक आराम करूँगी... वहाँ तक इस कमरे में कोई आ न पाए! मैं कमरा अंदर से बंद कर रही हूँ।'
'जैसी आपकी इच्छा ।' परिचारिका कमरे से बाहर चली गयी। सुरसुंदरी ज़मीन पर ही लेट गयी।
राजा मकरध्वज ने मन-ही-मन निर्णय कर लिया सुरसुंदरी को पटरानी बनाने का। पर इधर पटरानी मदनसेना ने परिचारिका को बुलाकर पूछा :
'यह औरत कौन है?' 'मैं नही जानती... महारानी।' 'कहाँ से आयी है?' 'धीवरों के टोली को मिली थी, वे महाराजा को भेंट कर गये हैं।' 'महाराजा ने क्या कहा इस स्त्री से?'
'मैंने तो कुछ सुना नहीं... स्नान-भोजन वगैरह करवाकर उसके लिए इस कमरे में आराम करने की व्यवस्था कर दी है।'
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