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छोटी सी बात खिलाकर फिर खुद खाएगी, और कहेगी... 'अमर, कुछ नहीं, अब तेरी बारी है! तेरी जेब में से सुवर्णमुद्राएँ लेकर मैं दावत दूंगी, ध्यान रखना!'
पर गलती मेरी ही है। राजकुमारी से मैत्री करना ही नही चाहिए... राजा लोग तो अंहकारी होते ही है... उनकी राजकुमारियों को तो उनसे भी ज्यादा घमंड होता है। हाँ... मुझे क्या? उसका घमंड उसके पास रहे... मैं तो अब उसके साथ बोलूँगा ही नहीं... उसकी ओर देखूगा तक नहीं।
उस दिन जब पाठशाला में से निकलकर हम दोनों साथ घर जा रहे थे, तब उसने ही तो मुझसे कहा था : 'अमर, तू कितना अच्छा लड़का है। तूं मुझे बहुत अच्छा लगता है। पाठशाला में पढ़ते-पढ़ते भी मेरी आँखें तेरी ओर उठती हैं, वहीं ठहर जाती हैं। बस... जैसे तुझे देखती ही रहूँ... अमर, मैं तुझे अच्छी लगती हूँ? तब मैंने उससे कहा था 'सुर, मुझे तू बहुत अच्छी लगती है... अरे... तेरे सिवा और कुछ अच्छा ही नहीं लगता।' वह कितनी शरमा गयी थी? उसने प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था और टुकुर-टुकुर मेरी ओर देख रही थी। वह कुछ कहना चाहती थी, पर उसका गला भर आया था। फिर हम दोनों खामोश होकर चलते रहे । वह अपने महल में गयी... मैं अपनी हवेली में पहुँचा। __ और... उसने आज यह क्या कर दिया? उसकी हिरनी की-सी आँखो में आज प्यार नहीं था... उनसे आज आग बरस रही थी। उस आग ने मुझे झुलसा दिया... मेरे प्यार को जला दिया। शीतल चाँद-सा उसका गोरा मुखड़ा दोपहर के सूरज-सा लाल हो गया था। मैं तो उसकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सका। उसके मीठे-मीठे बोल आज ज़हर-से हो गये थे। __ नहीं... अब तो मैं उसके साथ कभी न बोलूँगा। और सुंदरी भी अंहकारी है, वह भी शायद मेरे साथ नहीं बोलेगी... चाहे न बोले । मुझे क्या? उसे आवश्यकता होगी, तो आएगी बोलने, मुझे क्या गरज है, जो मैं बोलने जाऊँ उससे? हां, मुझे उससे पूछकर ही उसकी सात कौड़ियां लेनी चाहिए थी। मैंने बिना पूछे ली, यह मेरी गलती हो गयी। पर क्या दोस्ती में भी पूछे बगैर वस्तु नहीं ली जा सकती? क्या वह मुझ से बगैर पूछे मेरी किताब नहीं लेती। मेरी लेखनी नहीं लेती? मैंने तो कभी उससे झगड़ा नहीं किया? मैंने कभी कुछ नही कहा।
राजकुमारी होकर सात कौड़ियों के लिए मेरे साथ लड़ने लगी? उसके
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