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सुरसुंदरी सरोवर डूब गई! झींगुरों की आवाज आ रही थी। फिर भी सुरसुंदरी की आँखों में नीद कहाँ? उसके मन में डर था... निराशा थी... वह व्यथा से आतंकित हुई जा रही थी।
'मैं जाऊँगी कहाँ? जंगल में चोर - डाकू मुझ पर हमला करेंगे तो? किसी गाँव-शहर में जाऊँ तो... वहाँ फिर बदमासों से पाला पड़ जाए...! मेरा लावण्य ही मेरे शील के लिए खतरा खड़ा कर रहा है। नहीं... नहीं, अब मुझे जीना ही नहीं है | जीने का मतलब भी क्या? मैं इस सरोवर में कूदकर अपने प्राण दे दूँ ।' ___ वह खड़ी हुई... उसके दिल पर निराशा का बोझ अब असह्य हुआ जा रहा था। वह सरोवर की पाल पर चढ़ गयी। सरोवर पानी से भरा-पूरा था। बड़ेबड़े मगरमच्छ उसमें मुँह बाये घूम रहे थे। सुरसुंदरी ने आँखे मूंद ली। दोनो हाथ जोड़कर श्री नवकार महामंत्र का स्मरण किया। शासनदेवों को स्मरण करके वह बोली :'हे शासनदेवता : मैं चंपानगरी के श्रेष्ठीपुत्र अमरकुमार की पत्नी सुरसुंदरी हूँ | मेरे पति मेरा त्याग करके चले गये हैं। आज दिन तक मैंने मन-वचन-काया से अपने शील की रक्षा की है। अमरकुमार के अलावा अन्य किसी पुरूष को मैंने अपने दिल में स्थान नहीं दिया है। शायद अमरकुमार भूले-भटके मेरी खोज में यहाँ चले आये तो उनसे कहना कि तुम्हारी पत्नी ने इस सरोवर में कूदकर आत्महत्या की है।
हे पंचपरमेष्ठी भगवान! मैं आपकी साक्षी से मेरी स्वयं की आत्मसाक्षी से कहती हूँ कि मेरे मन में किसी भी जीवात्मा के प्रति न तो गुस्सा है न नाराजगी है। मैं सभी जीवों से क्षमायाचना करती हूँ| सभी मुझे क्षमा करें। मैं अपने शरीर पर से ममत्व हटा रही हूँ। मैंने यदि इस जीवन में कुछ धर्म का पालन किया हो तो मुझे जनम-जनम तक परमात्मा जिनेश्वर देव का शासन मिले । मुझे उन्हीं की शरण है। मेरा सब कुछ धर्म को अर्पित है।'
और सुरसुंदरी ने छलाँग लगा दी सरोवर में। एक 'छप...' की आवाज आयी और सुरसुंदरी सरोवर के पानी में डूब गयी।
एक प्रहर बीत गया... सरिता लीलावती के पास पहुँची 'देवी, सुरसुंदरी अभी तक वैद्यराज के घर से आयी नहीं है... तो क्या मैं जाकर उसे लिवा लाऊँ?'
'क्या अभी तक नहीं लौटी? इतनी देर क्यों हुई उसे?' 'देवी हम गये तब वैद्यराज तो नित्यकर्म से निपटे भी नहीं थे, उनकी उम्र भी तो कितनी अधिक हो चुकी है!'
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