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सुरसुंदरी सरोवर डूब गई!
१३४ आप उसे इतना यदि कहें 'वह कहाँ गयी... मुझे मालूम नहीं है... मैंने तो उसे जाँचकर दवाई दे दी थी... फिर वह चली गयी।'
'अच्छा... बेटी! तू अब यहाँ से शीघ्र चली जा | परमात्मा तेरी रक्षा करेंगे। आखिर तो सत्य ही विजयी होता है।'
सुरसुंदरी वैद्यराज के चरणों में प्रणाम करके त्वरित गति से उस मकान से निकलकर नगर के दरवाज़े के बाहर आयी और फिर नवकार का स्मरण करके जंगल की ओर दौड़ने लगी। मन में नवकार का जाप था । एकाध कोस तक मुख्य रास्ते पर चलने के पश्चात् वह पगडंडी पर दौड़ने लगी।
वह जानती थी सवा लाख रुपये देकर वेश्या ने उसे खरीदा था। वह गुम हो जाए... फरार हो जाए तो उसे खोजने के लिए लीलावती धरती-आकाश सिर पर उठाये बिना नहीं रहेगी। राजा के समक्ष शिकायत करेगी तो राजा के सैनिक भी चारों ओर उसे खोजने के लिए निकल पडेगे।
सुरसुंदरी न दिशा देखती है... न काँटे-कंकड़ का ख्याल कर रही है, वह तो बेतहाशा दौड़ रही है। दौड़ते-दौड़ते थक जाती, तो धीरे-धीरे चलती है। चारों ओर देखती है। दूर-दूर नजर फेंकती है। उसके मन में भरोसा हो गया कि कोई पीछा नहीं कर रहा है। वह आश्वस्त हुई।
दिन के तीन प्रहर बीत गये। सूरज अस्ताचल की ओर झुकने लगा था। सुरसुंदरी एक बड़े सरोवर के किनारे के पास जा पहुंची थी।
सरोवर के किनारे वृक्षों का समूह था। सुरसुंदरी उसमें जाकर बैठी। वह थकान से चूर हुई जा रही थी। उसका पूरा शरीर पीड़ा से तड़प रहा था। दोनों पैरों की एड़ियों से खून बह रहा था।
सुरसुंदरी को सरिता का विचार सताने लगा। 'क्या हुआ उस बेचारी का? क्या लीलावती ने उस पर मुझे भगाने का इल्जाम तो नहीं मढ़ा होगा न? उससे सत्य उगलवाने के लिए फटकारा तो नहीं होगा न? वेश्या के घर में नौकरी करती है, फिर भी उसके दिल में कितनी मानवता भरी हुई है? मेरे लिए उसने कितनी हिम्मत दिखायी । मैंने उसे कुछ दिया भी नहीं। ऊफ... मेरे पास है भी क्या देने के लिए? मैं कितनी अभागिन! ओ मेरे परमात्मा... उसकी रक्षा करना... मेरे नवकार, उसे आपत्ति से बचाना।' सुरसुंदरी की आँखों में से गरम-गरम आँसू टपकने लगे।
उसने इधर-उधर की जमीन को साफ किया और विश्राम करने के लिए लेट गयी। हवा शीत थी। पेड़ों की ठंडी छाँव थी। पक्षियों का कुजन गूंज रहा था।
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