________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हंसी के फूल खिले अरसे के बाद!
१३१ ___ 'बिलकुल ही गलत बात! मुझे एक भी सपना आया ही नहीं था । इतनी तो गहरी नींद आयी कि पिछले कई दिनों से मैं गहरी नहीं सोयीथी। आज सो गयी... इसका श्रेय तुझे...' ___ 'न...न... नहीं! इसका श्रेय तुम्हारे उस नवकार मंत्र को देना। अब बातें बाद में करेंगे... अभी तो भोजन कर लो।'
'तू भी मेरे साथ ही खाना खाएगी न?' 'इतना भोजन हम दोनों को पूरा थोड़े ही होगा?' मुझे खाने के लिए ज्यादा चाहिए!' सरिता ने भोजन की एक थाली मेज पर रखी।
एक ही थाली में दोनों ने भोजन किया। 'देवी! एक बात की सफाई दे दूँ... मैं इस भवन की परिचारिका हूँ, इतना ही! इस भवन के धंधे के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है! ऐसी सफाई इसलिए दे रही हूँ, कहीं पीछे से तुम्हारे मन में अफसोस न हो कि मैंने वैश्या के साथ भोजन किया, अपने शील को कलंक लगाया। केवल पेट की खातिर मुझे इस भवन में नौकरी करनी पड़ती है।'
सुरसुंदरी सरिता के ऊर्जस्वी उजले चेहरे को देखती रही। उसके दिल में सरिता के प्रति स्नेह का रंग उभरने लगा। सरिता खाली थाली लेकर चली गयी। सुरसुंदरी लीलावती के कमरे की तरफ चल दी। लीलावती ने दुलार से सुरसुंदरी का स्वागत किया और पूछा : 'सुंदरी, थकान तो उतर रही है न? कोई तकलीफ तो नहीं है न?' 'सब कुछ ठीक है... पर एक ज़रा तकलीफ है!' 'क्या है? बोल न?' 'मुझे मेरा शरीर किसी अच्छे वैद्य को दिखाना होगा। शायद मैं किसी रोग की शिकार हो गयी हूँ... यह रोग दूर हो जाए, फिर ही मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन कर पाऊँगी।'
'इसमें कौन-सी बड़ी बात है? अच्छा हुआ आज तूने बता दिया । मैं वैद्य को कहला देती हूँ। वह सुबह ही मिलता है। कल सुबह मैं तुझे वैद्य के वहाँ भिजवा दूंगी। और कुछ चाहिए तो कहना।'
'नहीं... बस, औषधि-उपचार हो जाए तो फिर शांति रहेगी।'
For Private And Personal Use Only