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हंसी के फूल खिले अरसे के बाद! 'अरे वाह! तू तो बाबा, मेरी अंतर्यामी हो गयी।'
सुरसुंदरी सरिता से लिपट गयी। 'और यदि आप फरमाए तो मैं आपकी साथी हो जाऊँ!'
नहीं... नहीं सरू! मेरे साथ रहकर तो तु दुःखी हो जाएगी! मैं तो हूँ ही अभागिन! तू मुझे सहयोग दे यही काफी है। परंतू मुझे बता दे कि कहीं तुझ पर मुझे भगाने का इल्जाम तो नहीं आएगा न?' __'नहीं! तुम बिल्कुल निश्चित रहना। तुम्हारा नवकार मंत्र मेरी भी रक्षा करेगा। मेरी सुरक्षा के लिए तुम थोड़ा जाप और ज्यादा कर लेना। करोगी न?'
सुरसुंदरी जैसे अपने दुःख भूल गयी... सरिता की बातों ने उसके दिल पर का बोझ हलका कर दिया। 'मैं तो लीलावती को कहूँगी कि 'अच्छा ही हुआ जो वह सुंदरी भाग गयी... वरना वह जगदम्बा तो तुम्हारे इस भवन को राख कर डालती! उसका यक्षराज आकर हम सबको कच्चा ही चबा जाता!' ___ सुरसुंदरी मुँह में साड़ी का आंचल भरकर हँसने लगी। सरिता भी हँस पड़ी!
सुरसुंदरी ने दूध पी लिया और सरिता से कहा : 'आज तो थाली भरकर खाना लाना। भर-पेट खाऊँगी!' 'खाओगी ही न! कल जो दौड़ लगानी है!' 'तेरी तर्कशक्ति लाजवाब है।'
सरिता हँसती-हँसती चल दी। सुरसुंदरी काफी आश्वस्त हो गयी थी। सारी रात उसे नींद नहीं आयी थी, इसलिए वह जमीन पर लेटते ही वहीं पर सो गयी। गहरी नींद में वह दो प्रहर तक सोयी ही रही।
अचानक उसके पैरों के तलवे पर किसी का मुलायम स्पर्श होने लगा, तो वह झटके के साथ जग उठी। आँखे खोलकर देखा तो पैरों के पास सरिता बैठी थी। उसके निकट भोजन की थाली पड़ी हुई थी।
'तू कब आई?' 'दो घड़ी तो बीती ही होगी!' 'ओह! मुझे जगाना तो था!' 'सपना टूट जाये तो?'
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