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हंसी के फूल खिले अरसे के बाद!
१२९ बाहर पहुँचा दे... फिर मैं जंगल की शरण में चली जाऊँगी! मेरा शील सलामत रहे... बस! मुझे और कुछ नहीं चाहिए!' __सरिता खड़ी हुई। उसने कमरे के बाहर जाकर इधर-उधर देख लिया
और फिर दरवाजा बंद करके भीतर आयी। ___ कल सुबह तड़के ही मैं यहाँ आऊँगी, तुम तैयार रहना। नगर के बाहर तुम्हें ले चलूँगी। फिर कहाँ जाना यह तुम तय करना। पर एक बात तुम लीलावती से आज ही कह देना कि मेरा स्वास्थ ठीक नहीं है... शरीर में पीड़ा है... किसी अच्छे वैद्य को मेरा शरीर दिखाना है। कुछ दिन औषध-उपचार कर लूँ... ताकि शरीर तंदुरुस्त हो जाए। फिर पुरुषों को रिझाने का कार्य भली-भाँति हो सकेगा।' 'तुने कहा वैसे मैं बात तो कर दूंगी... पर उस वैद्य को यहाँ बुलाएगी तो?' 'नहीं, वह वैद्य यहाँ आएगा ही नहीं! वह काफी बूढा है, गाँव के दरवाज़े पर रहता है... और इस भवन की किसी भी औरत को शारीरिक बीमारी हो तो उसे उसी वैद्य के पास ही लीलावती भेजती है। वैद्य लीलावती का विश्वासपात्र भी है।' ___ 'पर, वह खुद मेरे साथ आएगी तो?'
'नहीं... तुम्हारे साथ वह मुझे ही भेजेगी। वह खुद तो कभी भी किसी स्त्री के साथ वैद्य के वहाँ जाती ही नहीं है।' __सुरसुंदरी गहरे विचारों में डूब गयी : मेरे खातिर सरिता तो परेशानी में नहीं फँसेगी न?' सरिता बोली :'तुम मेरी चिंता कर रही हो न?'
'हाँ, पर तूने कैसे जान लिया?' 'तुम्हारे वह यक्षराज आकर मेरे कान में फुसफुसाह गये।' और सरिता हँस दी। सुरसुंदरी भी हास्य को न रोक सकी। कई दिनों बाद उसके चेहरे पर हास्य के फूल खिले थे।
'देवी, ऊँचे घर के लोग हमेंशा दूसरों की ही चिंता ज्यादा करते हैं। इसलिए मैंने अंदाज लगाया कि तुम मेरी चिंता कर रही होगी... मैं तुम्हारे साथ आऊँ... और फिर वापस अकेली आऊँ... तो तुम्हें भगाने का इल्जाम मेरे सिर आए... फिर लीलावती मुझे सजा करे या नौकरी से निकाल दे! ऐसा सोच रही हो न?'
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