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हंसी के फूल खिले अरसे के बाद!
१२८ 'तुम्हारा परिचय जानना चाहती हूँ... और तुम यहाँ किस तरह आ गयी.. यदि मुझे बताओ तो...'
'पर तू जानकर क्या करोगी?' 'करूँगी तो क्या? पर तुम जो कहोगी वह ज़रूर करूँगी!' 'सचमुच' सुरसुंदरी ने परिचारिका के कंधो पर अपने हाथ रख दिये! 'वादा करती हूँ! 'सुन ले मेरी दास्तान!' सुरसुंदरी ने शुरू से लेकर अब तक की सारी घटनाएँ सुना दीं। परिचारिका ने काफी ध्यान देकर सारी बातें सुनीं। यक्षद्वीप की... यक्षराज की... बातें सुनकर तो उसे लगा कि 'ज़रूर इस स्त्री पर दैवी कृपा है।' धनंजय की जलसमाधी की बात व बेनातट नगर में हुई घटना सुनकर... उसके मन में सुरसुंदरी के प्रति सहानुभूति के दीये जल उठे | फानहान की बदतमीजी व प्रपंच-लीला सुनकर तो उसने उसके नाम पर थूक दिया... उसके मुँह में से गाली निकल गयी!
पूरी बात सुनकर उसने सुरसुंदरी से पूछा : 'कहिए... देवी! आप मुझसे क्या चाहती हैं? आप जो भी साथ सहयोग माँगोगी... मैं दूँगी! मुझे तुमसे पूरी हमदर्दी है...।' 'मेरे साथ धोखा तो नहीं होगा न?' 'धोखा? धोखा करनेवाले होंगे... अमरकुमार... धनंजय और फानहान... जैसे आदमी लोग! यह सरिता उनमें से नहीं! भरोसा करना मुझ पर! सरिता कभी धोखा नहीं देगी!'
'तो तू मुझे यहाँ से भागने का रास्ता बता दे! मैं तेरा उपकार कभी नहीं भूलूँगी!' ‘पर जाना कहाँ है?' 'जहाँ मेरी क़िस्मत ले जाए मुझे, वहाँ!' 'इस तरह यदि क़िस्मत के भरोसे ही रहना हो तो फिर तुम्हारी क़िस्मत तुम्हें यहाँ ले ही आयी है... यहीं रह जाओ न? और कहाँ-कहाँ भटकोगी!'
'यहाँ? नहीं... यहाँ तो बिलकुल नहीं रहना है... मुझे तू इस नगर के
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