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सुरसुंदरी सरोवर डूब गई!
१३२ सुरसुंदरी अपने कक्ष में चली आयी। उसे अपनी योजना सफल होती दिखी, पर मैं नगर छोड़कर भाग कर जाऊँगी कहाँ? जंगल में कोई नराधम मिल जाएँ तो?'
दुःख के ही दिन में विचार भी ज्यादातर दुःख के आते रहते हैं। सुरसुंदरी गुमसुम हो गयी। उसने श्री नमस्कार महामंत्र का जाप चालू किया। मन को एकाग्र बनाने की कोशिश करने लगी। धीरे-धीरे जाप में लीन हो गयी।
साँझ के भोजन का समय हो चुका था। सरिता का स्वर गूंजा : ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?'
जवाब की प्रतिक्षा किये बगैर वह अंदर चली आयी। भोजन की थाली मेज पर जमाकर बोली :
'अक्का (लीलावती) की आज्ञा के मुताबिक कल बड़े तड़के ही मुझे तुम्हारे साथ वैद्यराज के घर जाना है।' 'मैं तैयार रहूँगी।'
'अभी तो भोजन के लिए तैयार हो जाओ! हाँ, पेट भर खाना... क्या पता कल कहाँ जाओगी? क्या खाने को मिले न मिले! और फिर तुम यहा नहीं खाती... वह नहीं खाती... कितना कष्ट दे रही हो अपने आपको!' _ 'सरि! जिंदगी में आँधी के गले गलबाँही डालकर हमे जीना ही पड़ता है, न इन्सान को? और मेरी क़िस्मत में तो जीते जी मर जाना लिखा कर लायी हूँ... न जाने कितनी मौतें मेरा इंतजार कर रही हैं!'
"ऐसा मत कहो! ये दिन भी गुजर जाएँगे... देवी! तुम्हारी रक्षा तो मंत्र के देवता जो कर रहे हैं! अच्छा अब भोजन को ठंडा करने की आवश्यकता नहीं है।'
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