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चौराहे पर बिकना पड़ा! __ परंतु यदि कहीं यकायक अमर से मिलना हो गया तो? अमर... मेरे अमर! तूने यह क्या किया? अमर... ओह! तेरे ही भरोसे पर तेरी गोद में सोयी अपनी प्रियतमा को इस तरह छोड़ दिया? क्या तू मुझे और कोई सज़ा नहीं दे सकता था? हाय! यदि तुने मेरा गला घोंट दिया होता... मुझे मार डाला होता तो मैं तुझे नहीं रोकती... पर मेरा शील तो अखंड रहता न? मेरी अस्मत को तो खतरा नहीं रहता | अमर! तू सोच भी नहीं सकता... मेरी क्या हालत हो रही है... ओह! अमर, तू मुझे कभी न कभी... कहीं न कहीं मिलेगा...' क्या इसी आशा के कच्चे धागे के सहारे जिंदगी गुजारूँ? पर शील को गँवाकर जीना मुझे गवारा नहीं होगा। यह मुमकिन नहीं मेरे लिए! और... अब जिंदा रहकर शील की सुरक्षा करना बड़ा कठिन ही नहीं, असंभव-सा नज़र आ रहा है। कहाँ लाकर पटक दिया है मेरे पाप कर्मो ने मुझे, इस वेश्यालय में! हाय! मेरे पापकर्म भी कितने कठोर हैं? ___ मेरे अमर! अब शायद इस जनम में मैं तुझसे कभी नहीं मिल पाऊँगी! केवल तीन दिन बचे हैं... मेरे पास । यदि मेरा महामंत्र मुझे और कोई रास्ता सुझाएगा मेरी शीलरक्षा के लिए... तब तो मैं आत्मघात का रास्ता नहीं अपनाऊँगी... वरना...
अरे! आज मैंने अभी तक नवकार का जाप क्यों नहीं किया? बस... अब यहाँ मुझे अन्य तो कुछ कार्य है नहीं... तीन दिन में हो सके उतना जाप कर लूँ।'
सुरसुंदरी ने पद्मासन लगाकर बैठकर महामंत्र का जाप प्रारंभ किया। धीरे-धीरे जाप में से वह ध्यान की दुनिया में डूब गयी। पंचपरमेष्ठी के ध्यान में वह बिलकुल सहजता से तल्लीन हो सकती थी।
दिन का दूसरा प्रहर बीत चुका था। भोजन का समय हुआ तो दरवाज़े पर दस्तक हुई। सुरसुंदरी ने परिचारिका को भोजन का थाल हाथ में लिए खड़ी देखी। सुरसुंदरी के सामने स्मित करते हुए उसने अंदर प्रवेश किया। भोजन का थाल पीढ़े पर रखकर उसने सुरसुंदरी की ओर देखा। 'मुझे भोजन नहीं करना है।'
'यहाँ जो कोई नयी स्त्री आती है... वह भोजन करने से इन्कार ही करती है। पर क्या भोजन नहीं करने मात्र से दुःख दूर हो जाएगा? दुःख को दूर करने के लिए तो भोजन ज़रूर करना चाहिए। भोजन करोगी तो शरीर स्वस्थ
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