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चौराहे पर बिकना पड़ा!
'यहाँ तू गुलाम नहीं पर रानी-महारानी बनकर रहेगी! बस, मेरी एक बात माननी होगी तुझे। जिस आदमी को मैं तेरे पास भेजूं... उसे बराबर खुश करती रहना।' 'ठीक है, पर मुझे तीन दिनों का संपूर्ण विश्राम चाहिए।'
'मिल जाएगा। चल मेरे साथ, तुझे जहाँ रहना है... वह कमरा मैं तुझे दिखा दूँ। कमरे को देखते ही तेरी थकान मिट जाएगी... और पलंग में गिरते ही तेरे एक-एक अंग में फुर्ती का नशा पैदा हो जाएगा।'
लीलावती ने सुरसुंदरी को रहने के लिए एक सुंदर व सुशोभित कमरा दिया। कमरे में करायी हुई व्यवस्था समझा दी और वह चली गई।
सुरसुंदरी ने अविलंब कमरे का दरवाजा बंद किया और जमीन पर गिर पड़ी... वह फफक-फफककर रोने लगी। दिल में दर्द का दरिया उफनने लगा। आँखों में से आँसुओं की झड़ी होने लगी।
'मेरा कितना दुर्भाग्य! मेरे कैसे पापकर्म उदय में आये? जिससे मैं बचने और जिसे बचाने के लिए दरिया में कूद गई... उसी दलदल में आज आ फँसी! यहाँ मैं अपने शील को बचाउँगी भी तो कैसे? इस वेश्या ने मुझे सवा लाख रुपये देकर खरीदा है। इतना सारा रुपया देकर खरीदने के पश्चात् वह मुझे छोड़ने से रही! मैं चाहे जितनी मिन्नत-खुशामद करूँ, पर वह मुझे नहीं जाने देगी।
पर यह क्यों हुआ? इसने क्या मुझे खरीदा? मैं खूबसूरत हूँ इसलिए न? मेरा सौंदर्य ही मेरा दुश्मन बना हुआ है... वह धनंजय एवं फानहान भी तो मेरे पर इसिलिए मोहित हुए थे न? मेरे रूप के पाप से... ___ अपने रूप को मैं कितना चाहती थी? अपने रूप को देखकर मैं अपना पुण्योदय मानती थी। अमर जब मेरे रूप की प्रशंसा करता, तब मैं फूली नहीं समाती। वह रूप ही आज मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है। मेरा सर्वनाश करने का निमित्त हुआ जा रहा है। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? इस रूप को जला दूं? आग लगा दूँ, अपने चहरे की खूबसूरती में?
हाँ, जला ही दूँ इस रूप को | मैं बदसूरत हो जाऊँगी... मेरा चेहरा झुलस जाएगा.., मेरे बाल जल जाएँगे... मेरी सूरत गंदी हो जाएगी... फिर कोई मेरी ओर निगाह नहीं उठाएगा। कोई मुझे अपना शिकार नहीं बनाएगा... और तो और, यह वेश्या भी मुझे बाहर निकाल देगी अपने घर से!
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