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चौराहे पर बिकना पड़ा!
१२२ जलक्रीड़ा करना। शरीर पर सुगंधित द्रव्यों का विलेपन करना। आंखों में अंजन लगाना।'
‘पर यह सब क्यों करने का? मुझ पर तुम इतना ढेर सारा प्यार क्यों उड़ेल रही हो? मेरी समझ में नहीं आ रहा है, यह सब कुछ!'
'समझ में आ जाएगा सुंदरी, बहुत जल्द मालूम हो जाएगा तुझे भी सब कुछ! यह सब करके तुझे इस हवेली में आनेवाले रसज्ञ पैसेवालों को शय्यासुख देना है। उन्हें खुश करके हजारों रुपये पाने हैं। हाँ, तुझे जो पसंद हो... उस आदमी को तू खुश करना । तुझे जो नापसंद हो, उसे मैं अन्य किसी लड़की के पास भेज दूंगी।' ___ 'तो क्या यह वेश्यागृह है और तुम...?'
'इसमें चौंकने की कोई बात नहीं है... पैसेवाले लोग इसे वेश्यागृह नहीं कहते... वे इसे स्वर्ग कहते हैं! यहाँ उन्हें अप्सराएँ मिलती हैं। अप्सराओं के साथ आनंद-प्रमोद के लिए वे यहाँ आते हैं... मैं उनसे हजारों रुपये लेती हूँ!'
सुरसुंदरी की आँखें सजल हो उठीं। उसका दिल दुःख की चट्टानों के नीचे कसमसाने लगा। धरती पर स्थिर दृष्टि रखते हुए उसने लीलावती से कहा :
'क्या तुम मेरी एक बात मानोगी?' 'ज़रुर! क्यों नहीं?' 'मैं एक दुःखी औरत हूँ!'
'यहाँ जो औरतें आती हैं, वे सब दुःखी ही होती हैं... फिर बाद में दुःख भूल जाती हैं।'
'मैं भी अपना दुःख भूलना चाहती हूँ।' 'यह तो अच्छी बात है।' ‘पर इसके लिए मुझे तीन दिन का समय चाहिए। तीन दिन तक मैं किसी भी आदमी का मुँह नही देखूगी।'
'इसके बाद?' 'तुम कहोगी वैसा करूँगी। चूंकि मैं तो तुम्हारी क्रीत-दासी हूँ... तुम्हारी गुलाम हूँ।'
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