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फिर वही हादसा
११३
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MARAT१८. फिर वही हादसा
अंधियारे आकाश का साया था सिर पर | मुसलाधार पानी बरस रहा था। बरसात की अँधियारी रात उतर आयी थी। ऐरेगैरों के दिल फट पड़े वैसी बिजलियाँ चमक रही थी। महासागर की तुफानी तरंगे ऊँची-ऊँची उछल रही थी। ऐसी भयानक गर्जना उठ रही थी समुद्र में कि सुनने पर गर्भवती का गर्भ गिर जाए।
टूटे हुए जहाज की एक पटिया सुरसुंदरी के हाथों लग गयी। उसने पटिये को अपनी बाहों में भींच लिया। पटिया के साथ-साथ वह भी महासागर में उछलने लगी। उसका मन निरंतर श्री नवकार महामंत्र के स्मरण में लीन था। उसे अपनी जान की परवाह न थी। उसे अपने शील के बचने का अपार आनंद था। धनंजय के जहाज़ को उसने कटे वृक्ष की भाँति टूटते हुए देखा था और टूटे जहाज़ को जलसमाधि लेते हुए भी देखा था।
धीरे-धीरे सागर शांत हो गया।
शांत सागर के पानी पर सुरसुंदरी बेहोश होकर तैर रही थी। लंबे पटिये को अपने सीने से जकड़कर वह औंधी सो गयी थी। पटिया पानी के बहाव में चला जा रहा था। __जब सुंदरी की आँखें खुली, तो उसने अपने आपको एक नगर के किनारे की रेत में पड़ा हुआ पाया। पटिया किनारे की रेत में दब-सी गयी थी। वह तुरंत खड़ी हुई। उसके कपड़े जगह-जगह फट गये थे। गीले थे। कीचड़ से सन गये थे। वह किनारे पर खड़ी रह गई। हवा में वह अपने कपड़े सुखाने की कोशिश करने लगी। ___ 'यह कौन-सा नगर होगा? जाऊँ इस नगर में...? पर अनजान नगर में मैं जाऊँगी कहाँ पर! फिर कहीं नयी आफत...? आने दूँ आफत को? वैसे भी अब आफत आने में तो और बाकी क्या रहा है? समुद्र में कूदकर आफत का सामना किया है, तो फिर इससे बड़ी और कौन-सी आफत चली आएगी। यहाँ खड़े रहने से तो मतलब भी क्या?'
सुरसुंदरी चलने लगी नगर की तरफ। वह नगर था बेनातट । नगर के मुख्य दरवाज़े में उसने प्रवेश किया। इतने में नगर में जोरदार कोलाहल सुना
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