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समुंदर की गोद में
'आपको भोजन करना हो तो कर लिजिए ।'
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'नहीं... अब तो मैं अपना मनचाहा भोजन ही करूँगा ।' उसने ललचायी निगाहों से सुरसुंदरी की देह को देखा ।
सुरसुंदरी ने धनंजय के जाते ही अपने कक्ष के द्वार बंद किये। सुंदर कपड़े पहने। ध्यान में लीन होने के लिए वह बैठ गयी। श्री नमस्कार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गयी। उसके अंग में सिहरन फैलने लगी। जैसे कोई अनजान शक्ति उसके भीतर प्रगट हो रही थी । उसने आँखे खोली । खड़ी हुई और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली ।
धनंजय भी इधर स्वर्ग के सुख की आशा में झुलता-झुलता डेक पर आ पहुँचा। दोनों जहाज़ के किनारे पर जाकर एक पाट पर बैठ गये । नाविक व अन्य नौकर वहाँ से खिसक गये ।
सूरज डूबने की तैयारी में था । समुद्र में तूफान उठने के पहले की खामोशी छायी थी। क्षितिज धुँधलके में अदृश्य - सा घिर गया था। धनंजय का तो कलेजा मानो गले में आ गया था ।
‘सुंदरी... ला... तेरा हाथ । मेरे हाथों में दे। कितना खूबसूरत समाँ है ? इस ढलते सूरज की सौगंध हम लेकर एक-दूसरे के होने का वादा करें ।' 'धनंजय!' सुरसुंदरी ने पहली बार नाम लेकर पुकारा :
'आज समुद्र में तूफान उठ रहा हो ऐसा लगता है। अपना जहाज डाँवाडोल हो रहा है...'
'नहीं री सुंदरी... यह तो नाच रहा है... हम दोनों के मिलन की खुशी में ।' 'पर यह नृत्य, शिव का तांडव नृत्य हो गया तो !'
'तू कैसी बातें कर रही है, ऐसे सुंदर समय में ।'
'सच कह रही हूँ... धनंजय ! मुझे तेरा सर्वनाश नजर आ रहा है... अब भी सोच ले, वरना...'
'सुंदरी!' धनंजय बौखलाकर चीख उठा ।
'मैं वास्तविकता बता रही हूँ... धनंजय ! तेरा सर्वनाश सामने है... वरना तेरी बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती ।'
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'सुंदरी ... क्या यही पुराणपाठ सुनाने यहाँ पर आयी है तू ? धनंजय की आँखो में चिंगारियाँ भड़कने लगी।