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समुंदर की गोद में
११० शील अखंडित रहेगा। वर्ना यह कामांध बना सेठ मेरे पवित्र देह को कलंकित करके ही छोड़ेगा। प्राणहीन इस देह को भी यह मसल डालेगा।'
उसने कमरे की एक खिड़की खोल दी। समुद्र उछालें भर रहा था। वह अपलक देखती रही उसके उफनते पानी को! समुद्र गरज रहा था... जैसे कि वह सुरसुंदरी को बुला रहा हो। 'आ जा... बेटी! चली आ मेरी उत्संग में! तुझे
और तेरे शील को जरा भी आँच नहीं आयेगी... निर्भय हो कर चली आ । तेरे दिल में धर्म है,
वैसे मेरे भीतर भी धर्म है... आ जा... भरोसा रखकर ।' सुरसुंदरी ने मन ही मन निर्णय किया सागर की गोद में समा जाने का । उसके चेहरे पर निश्चितता उभरी।
दरवाजे पर दस्तक हुई। सुंदरी ने दरवाजा खोला, देखा सामने धनंजय खड़ा है। 'चल, भोजन कर ले।' 'नहीं... मुझे खाना नहीं खाना है। 'क्यों?' 'भूख नहीं है...' 'अच्छा ठीक है... विचार कर लिया?' 'हाँ!' 'मेरी बात कबूल है न?'
'इतनी जल्दबाज़ी मत करो। हम साँझ की बेला में जहाज़ के डेक पर चलेंगे... वहाँ बैठेंगे... ढलते सूरज के साये में और उछलते सागर को छूते हुए निर्णय करेंगे... पर हाँ, वहाँ पर उस समय हम दोनों के अलावा और कोई नहीं होना चाहिए।'
'वाह...! वाह...! वाह...! क्या पसंद है तेरी! समय और जगह कितनी बढिया पसंद किया? और तो और, तू तो जैसे कविता करने लग गयी | मुझे विश्वास था ही... मेरा प्यार तेरे पत्थर दिलको मोम कर ही देगा। हाँ, मैं सूचना दे दूंगा कि हम दोनों के अलावा वहाँ पर कोई नहीं रहेगा।' 'तो मैं कपड़े वगैरह बदल लूँ...?' 'मैं भी अच्छे कपड़े पहन लूँ?'
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