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समुंदर की गोद में
१०९ सुरसुंदरी ने तुरंत उठकर दरवाजा बंद किया अपने कमरे का, और पलंग पर लुढक गयी। पेड़ से कटी डाली की तरह! वह फफक-फफककर रो पड़ी।
'अमर ने विश्वासघात किया... इस व्यापारी ने धोखा दिया। मेरे कैसे पापकर्म उदय में आये हैं? इससे तो अच्छा था मैं यक्षद्वीप पर ही रह जाती। कम-से-कम, मेरे शील की रक्षा तो होती। अमर को जरूरत होती, तो स्वयं आता मुझे खोजने के लिए वहाँ पर! मैं ही उसके मोह में मूढ़ हुई जा रही हूँ | उसके पास जाने के पागलपन में इस जहाज़ में चढ़ बैठी। न कुछ सोचा... न कुछ समझा! अनजान आदमी का औरत को एकदम भरोसा नहीं करना चाहिए, पर मैं कर बैठी। मैं इसके मीठे वचनों में फँस गयी। क्या दुनिया के सभी लोग ऐसे चरित्रहीन और बेवफा होते हैं? अब मैं किसी भी आदमी का भरोसा नहीं करूँगी कभी। जान की बाजी लगाकर भी मैं अपने शील का रक्षण करूँगी। यह दुष्ट मुझे अपनी संपत्ति का लालच दिखा रहा है, जैसे मैं भूक्खड़ हूँ... इसको क्या पता नहीं है कि मेरे पिता राजा हैं और मेरे पति धनाढ्य श्रेष्ठी! इसकी संपत्ति से ढेरों ज्यादा संपत्ति मेरे पीहर और ससुराल में है। मैं एक राजकुमारी हूँ... यह भी यह मूर्ख भूल गया।
यह मुझे अबला समझ रहा है... यह मुझे अनाथ... असहाय मान रहा है... इसलिए मेरी आबरू लूटने पर उतारू हो आया है... पर किसी भी क़ीमत पर मैं अपने शील को बचाऊँगी। उसके हाथों नहीं बिकूँगी। श्री पंचपरमेष्ठी भगवंत सदा मेरी रक्षा करेंगे। मुझे उन की शरण है।'
और, उसे नवकार मंत्र याद आ गया। 'ओह! आज जाप करना तो बाकी है... मैं भी कितनी भुलक्कड़ हुई जा रही हूँ इन दिनों।' उसने जमीन पर आसन बिछाया और स्वस्थ मन से जाप करना प्रारंभ किया। ___ मद्धिम सुरों में उसने नमस्कार महामंत्र का जाप किया। धीरे-धीरे वह ध्यान की गहराई में डूबने लगी... ध्यान में डूबी उसे लगा कि कोई दिव्य आवाज उसे संबोधित कर रही है, 'बेटी, समुद्र में कूद जा! निर्भय बनकर कूद जा सागर में।
सुंदरी ने आंखे खोलकर कक्ष में चारों ओर देखा... 'किसने मुझे समुद्र में कुद गिरने का आदेश दिया? यहाँ कोई तो नहीं?'... वह खड़ी हुई.. और खंड में टहलने लगी।
'मुझे समुद्र में कूद जाना चाहिए... बिलकुल सही बात है... तो ही मेरा
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