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पिता मिल गये
९५ मैंने अज्ञानता वश उस स्वभाव को स्थिर मान लिया । गलती मेरी ही तो है। अस्थिर को स्थिर मानने की गलती की। क्षणिक को शाश्वत मानने की भूल की। कितनी बड़ी भूल है मेरी?'
उसके मानसपटल पर साध्वी सुव्रता प्रगट हुई। उनके करूणा से भरे नेत्र दिखायी दिये। उनके मुँह में से शब्दों के फूल मानो झरने लगे : 'सुंदरी, जिंदगी में केवल सुख की ही कल्पना मत बाँधे रखना । दुःख का विचार भी करते रहना। उन दुःखों में ध्यैर्य धारण करना । जीवात्मा के अपने ही बाँधे हुए पापकर्मों के उदय से दुःख आता है। समता से दुःखों को सहन करना। श्री नवकार महामंत्र के जाप से एवं पंचपरमेष्ठि भगवंतों के ध्यान से तेरा समताभाव अक्षुण्ण बना रहेगा! दुःख अपने-आप दूर होंगे। सुख का सागर उछलने लगेगा। तेरी जीवन नौका भवसागर से तीर पर पहुँच जाएगी।'
सुरसुंदरी का दिल गद्गद् हो उठा । साध्वीजी को उसने मानसवंदना की। उनकी शरण अंगीकार की।
सूर्य अस्ताचल की ओट में डूब गया। द्वीप पर अँधेरे की श्याम चादर फैलने लगी। सागर की तरंगों की गर्जना सुनायी देने लगी। __ सुरसुंदरी किनारे पर ही स्वच्छ रेत में बैठ गयी। उसने पद्मासन लगाया। दृष्टि को नासाग्र भाग में स्थिर की और श्री नमस्कार महामंत्र का जाप प्रारंभ किया।
उसे मालूम था कि मन जब अस्वस्थ और अशांत हो तब जाप मानसिक नहीं वरन् वाचिक करना चाहिए | मृदु व मध्यम सुर में उसने महामंत्र नवकार का उच्चारण करना शुरु किया।
देह स्थिर थी। मन लीन था । महामंत्र के उच्चारण के साथ ही मंत्रदेवताओं ने उसके इर्दगिर्द आभा मंडल रच दिया था। उसके मस्तक के आस-पास तेजपुंज रच गया था। उसके हृदय में पंचपरमेष्ठी भगवंतो का अवतरण हुआ था । वातावरण में पवित्रता का पुट मिल रहा था।
उस वक्त सुरसुंदरी के सामने अँधेरे में से एक आकृति प्रकट होने लगी। क्रूरता व भयानकता से भरी थी वह आकृति | उस आकृति की डरावनी आँखे सुरसुंदरी पर स्थिर न हो सकी। उसकी आँखे चौंधियाने लगीं।
वह आकृति थी यक्ष की, मानव भक्षी यक्ष की। महामंत्र नवकार की ध्वनि उसके श्रवणपुट में पड़ी।
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