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पिता मिल गये
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[१७. पिता मिल गये
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__ 'क्या उसने बचपन की उस मनहूस घटना को यादों के आंचल में बाँध रखी होगी? नहीं... नहीं... इसके बाद तो मैं उसे कई बार मिल चुकी हूँ | उसने मुझे प्यार दिया है। मेरे साथ आत्मीयता का व्यवहार किया है। कभी उसने वह बीती बात याद भी नहीं करायी। शादी के बाद भी उसने उस प्रसंग को याद नहीं किया कभी । हँसी-मज़ाक में भी उसने उस बात का जिक्र नहीं किया । तो फिर क्या आज यकायक ही उसे इस निर्जन द्वीप पर वह घटना याद आ गयी? मुझे यहाँ पर अकेली छोडे जाते हुए उसने कुछ भी सोचा नहीं होगा?
'क्या पता... शायद वह बात आते ही उसके दिमाग में मेरे लिए गुस्सा धधक उठा होगा? तब ही यह संभव है। क्योंकि गुस्से में आदमी बौखला जाता है। वैसे भी क्रोध को सर्वनाशकारी कहा है। ___ अन्यथा उसके जैसा ज्ञानी पुरूष ऐसा नहीं कर सकता। उसने गुरूदेव से धर्मज्ञान पाया है, ज्ञान भी प्राप्त किया हुआ है। क्या समझदार इतना क्रूरता भरा आचरण कर सकता है? और नहीं तो क्या? उसने क्रूरता ही तो जतायी है अपने आचरण के द्वारा । वह खुद ही तो कह रहा था कि यह यक्षद्वीप है... यहाँ का यक्ष मानव भक्षी है। कोई भी यात्री इस द्वीप पर रात बिताने की हिम्मत नहीं करता हैं। तो फिर वह मुझे तो उस यक्ष का शिकार बनाने को ही छोड़ गया न इधर? __ सुरसुंदरी यक्ष की कल्पना से सिहर उठी। उसके शरीर में कँपकँपी फैल गयी। उसका मनोमंथन रूक गया। उसने द्वीप पर दूर-दूर तक निगाहें दौड़ायी... 'यक्ष दिखता तो नहीं है न?' उसकी आँखों में भय के साये उतर आये। नहीं... नहीं... मुझे क्यों डरना? वैसे भी मुझे जीकर अब और करना भी क्या है? किसके लिए जीने का? यक्ष भले आए और मेरा भक्षण कर जाय । बस, मेरी एक ही इच्छा है मेरा शील अखंडित रहे...। प्राणों की बाजी लगाकर भी मैं शील का जतन ज़रूर करूँगी। मैं खुद ही यक्ष को कह दूँगी 'आप मुझे जिंदा मत रखियेगा। मुझे खा जाइए... मुझे जीना ही नहीं है।'
सुरसुंदरी की आँखे बहने लगीं। दूर-दूर समुद्र में उछलती तरंगों को देखकर वह सोचने लगी : मनुष्य का स्वभाव भी तो इस कदर ही चंचल है।
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