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पिता मिल गये
उस दिव्य ध्वनि में यक्ष की क्रूरता का बर्फ पिघलने लगा। उसके दिल में प्रश्न जगा | उसने निकट जाने की इच्छा की... पर वह न जा सका | सुरसुंदरी का तेज उसके लिए असह्य हुआ जा रहा था। वह खड़ा ही रहा।
सुरसुंदरी ने १०८ बार नवकार मंत्र का जाप किया और आँखें खोली। उसने यक्ष को सामने देखा । यक्ष नजदीक आया। उसके भीतर में वात्सल्यता का झरना बहने लगा। कोमल व भीगे स्वर में उसने पूछा : 'बेटी, तू कौन है? इस द्वीप पर अकेली क्यों है?
'ओ पिता के समान यक्षराज! जीवात्मा के पाप कर्म जब उदय में आते हैं, तब स्नेही भी शत्रु हो जाता है... मेरा पति मुझे अकेली यहाँ छोड़कर चला गया है।'
'तेरा कोई अपराध?' 'अपराध तो हुआ था बचपन में, सजा हुई है जवानी में।' 'बेटी तू यहाँ निर्भय है। मेरा तुझे अभय वचन है।'
'हे यक्षराज! अब मुझे कोई और किसी का भी भय नहीं है! चूंकि अब मुझे इस जीवन की भी स्पृहा नहीं है। अब मुझे आप अपना भक्ष्य...'
'नहीं... बेटी... नहीं! तू तो पुण्यशीला नारी है। मैंने तेरा तेज देखा है। तेरे पर तो दैवी कृपा है। तुझे कोई नहीं मार सकता बेटी। अरे तुझे कोई छू भी नहीं सकता... पर एक बात कहूँ? तू अभी जिस मंत्र का जाप कर रह थी... वह मंत्र मुझे बताएगी? मुझे वह मंत्र बहुत अच्छा लगा। मैं तो सुनता ही रहा।'
वह महामंत्र नवकार है, यक्षराज! मेरी गुरूमाता ने मुझे यह महामंत्र दिया है। मैं रोजाना इसका जाप करती हूँ! मेरे लिए तो यही एक शरण्य है।'
'सचमुच तू धन्य है! मैं तुझे अपनी बेटी मानता हूँ। अब तू मुझे बता कि मैं तेरे लिए क्या करूँ?' "मेरे लिए आप कष्ट न उठाएँ... मुझे अपनी क़िस्मत के भरोसे छोड़ दें।'
'नहीं... ऐसा कैसे होगा? यह मेरा द्वीप है... तू मेरे द्वीप पर आयी है, तो मेरी अतिथि है - मेहमान है। तेरी सार-संभाल रखना यह तो मेरा कर्तव्य है।'
'तो क्या मुझे मेरे पति के पास पहुंचा देंगे आप?'
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