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आखिर, जो होना था!
__ ८९ कोड़ियों में राज कैसे लेती है? लेती भी है या नहीं...?'
'इसका जो होना हो सो हो। इसे यहाँ सोयी छोड़कर चला जाऊँ! इसकी साड़ी के छोर में सात कौड़ी बाँधकर वहाँ लिख दूं... 'सात कौड़ियों में राज्य कैसे लिया जाता है, इसका भी इसे अंदाजा लगेगा। कितनी घमंडी है यह, मालूम हो जाएगा।'
‘पर जब नाविक पूछेगे तो? मुनीम पूछेगे कि 'सेठानी कहाँ है कुमार सेठ? तो मैं क्या जवाब दूंगा?' ।
अमरकुमार का शरीर पसीने में भीग गया । यदि मैं जवाब देने में सकपका जाऊँगा तो उन लोगों को संदेह होगा कि ज़रुर सेठ ने सेठानी की हत्या कर दी...।' उसकी देह में कँपकँपी फैल गयी। ___ 'नहीं-नहीं, मैं ऐसा जवाब दूंगा कि उन्हें कोई संदेह होगा ही नहीं। मैं कहूँगा कि यक्ष आकर सुंदरी को उठा ले गया... और मैं तो बड़ी मुश्किल से बचकर यहाँ दौड़ आया...!'
'एक पल की देर किये बगैर जहाज़ों को रवाना कर दूंगा!' हाँ... यक्ष का नाम आते ही सबको मेरी बात झूठी लगने का सवाल ही पैदा नहीं होगा!'
उसने दाँत भींचकर सुरसुंदरी की ओर देखा!
सुरसुंदरी कहीं जग न जाए इसकी पूरी सावधानी रखते हुए उसने अपनी जेब में से सात कोड़ियाँ निकाली और सुरसुंदरी की साड़ी के छोर में बाँध दी गाँठ लगाकर! पास में पड़ी पत्ते की सलाखा को आँखों के काजल से रंगकर साड़ी के छोर पर लिख दिया : 'सात कौड़ियों में राज्य लेना!' __ एकदम धीरे से उसने सुरसुंदरी का सिर अपनी गोद से ज़मीन पर रखा। सुरसुंदरी ने करवट बदली, एक क्षण उसने आँख खोली थी, पर अमरकुमार को देखकर निश्चिंत मन से फिर सो गयी...!
अमरकुमार पल-भर के लिए तो ठिठक गया, पर उसके दिल में बदले का लावा उफन रहा था। वह खड़ा हुआ। उसने सुरसुंदरी की ओर देखा... हाथ की मुट्ठियाँ अपने आप भिंच गयी। चेहरे पर सख्ती छलक आयी और वह दौड़ा| किनारे की ओर बेतहाशा दौड़ने लगा!
'शायद वह जग जाएगी और मुझे किनारे की ओर दौड़ता हुआ देख लेगी तो? वह भी दौड़ती हुई मेरे पीछे आ जाएगी!' अमरकुमार बार-बार पीछे देखता था और दौड़ा जा रहा था!
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