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आखिर, जो होना था!
तन श्रमित था । वृक्ष की ठंडी छाँव थी। हल्की-हल्की सी हवा बह रही थी। सुरसुंदरी की पलकें झपकने और वह अमरकुमार को टकटकी बाँधे निहार रही है... उसका मन बोलने लगा :
'कितनी निश्चित बनकर गहरी नींद में सो रही है! मुझपर कितना भरोसा है इसका | इसके चेहरे पर कितनी प्रसन्नता छायी है | वह मुझसे कितना गहरा प्रेम करती है!' ___ 'वैसे भी हमारा प्यार तो बचपन से है... साथ-साथ पढ़ते थे... तभी से हममें एक दूजे के लिए लगाव था... खिचाव था! बस, एक ही बार हम झगड़ा कर बैठे थे। ___ मैंने थोड़े ही झगड़ा किया था...! इसने ही तो मुझसे झगड़ा किया था! मैंने तो अपने प्रेम का अधिकार मानकर... इसकी साड़ी के छोर में बँधी सात कोडियाँ ले ली थी। मेरा कोई चोरी करने का इरादा थोड़े ही था? दूसरे विद्यार्थियों के देखते ही मैंने ली थी कोड़ियाँ!' मेरा मन, वह जगे तब उसे अजूबे में डाल देने को आतुर था! मैंने सोचा था वह जब मिठाई देखेगी तब आश्चर्य से मेरी और देखती ही रह जाएगी! और जब उसे मालूम होगा कि मैंने उसी की सात कोड़ियों से मिठाई खरीदकर छात्रों में बाँटी है, तब वह मीठा गुस्सा करके रुठ जाएगी। फिर मैं उसे मना लूँगा, तो मान जाएगी।
पर वह जगते ही गुस्से से बौखला उठी थी। मुझ पर चोरी का इलज़ाम लगा दिया... सभी विद्यार्थियों के बीच तू-तू मैं-मैं पर उतर आयी। अरे...बाबा...। उस वक्त उसका चेहरा कितना लाल-लाल हो गया था... उसके मुँह में से अंगारे बरसाते शब्द निकले थे।
उसका अभिमान कितना था! मुझसे कहा था 'हाँ, हाँ, सात कोड़ियों से मैं राज्य ले लेती राज्य! 'ओह, उसका गरुर कितना! राजकुमारी थी न? उसके पिता राजा... तो फिर वह किसी से दबे भी क्यों! __ परंतु... आज वह राजकुमारी नहीं है... मेरी पत्नी है... आज वह मेरे अधिकार में है।' __ अमरकुमार के मन में बचपन की कटु स्मृतियाँ एक-एक करके उभरने लगीं। वह धीरे-धीरे गुस्से से काँपने लगा। उसकी आँखों में बदले की आग के शोले भड़कने लगे। उसकी नसें खिंचने लगीं। 'सात कोड़ियों में उसे राज्य लेने दूँ। हाँ... देखू तो सही, वह सात
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