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आखिर, जो होना था!
नाविकों व मुनिमों ने अमरकुमार को अकेले दौड़ते हुए आता देखा। उनके भीतर आतंक की लहर फैल गयी। नाविक सामने गये दौड़ते हुए | 'क्या हो गया कुमार सेठ? सेठानी कहाँ है?'
अमरकुमार ज़मीन पर गिर पड़ा! वह हाँफ रहा था...। उसकी आँखो में भय था। उसने उखड़े-उखड़े शब्दों में कहा : जल्दी करो... वह यक्ष... आया... और सुंदरी को उठा ले गया... मैं भाग आया...।' _ 'क्या? सेठानी को यक्ष उठा ले गया? ओह... बाप रे! सत्यानाश! चलो, चलो, हम जल्दी जहाज़ में बैठ जाय! कहीं वह दुष्ट आकर हम सबको न मार डाले!' मुख्य नाविक ने किनारे की ओर तेजी से कदम बढ़ाये | ___ भोजन ज्यों-का-त्यों पड़ा रहा! सभी जल्दी-जल्दी नौका में बैठकर जहाज़ पर पहुँच गये और तुरंत लंगर उठाकर जहाज़ों को खोलकर चला दिया दरिया में पूरे ज़ोर से! ___ अमरकुमार अपने जहाज़ में पहुँचकर सीधे ही अपने कमरे में घुस गया। दरवाज़ा बंद करके पलंग पर लेट गया! उसके मन में विचार उठने लगेः
'अब मेरा काम हुआ...! बदला लेने की मेरी इच्छा तो थी ही... पर वह इच्छा प्रेम की राख के नीचे दबी-दबी सुबक रही थी। हाँ... मुझे भी उस पर प्यार था, फिर भी उसके कहे हुए कटु शब्दों के घाव भरे कहाँ थे? आज यकायक उस करारे घाव की वेदना फफक उठी और मैंने बदला ले लिया! हा... हा... हा... हा...।' पागल की तरह अमरकुमार हँसने लगा।
'वह यक्ष...? हाँ.... रात होते ही वह आएगा... और उसे उसका अच्छा शिकार मिल जाएगा। राज्य लेने जाते वह खुद ही शिकार बन जाएगी। यक्ष के क्रूर जबड़ों में वह समा जाएगी... हा... हा... हा...।'
उसने गवाक्ष, में से यक्षद्वीप की ओर देखा! द्वीप अब एक बिन्दु-सा नज़र आ रहा था।
'बस...! अब सिंहलद्वीप जाकर मन चाहा व्यापार करूँगा...। काफी पैसा कमाऊँगा... कुबेर बन जाऊँगा।' ___परिचारिका ने द्वार खटखटाया... वह भोजन लिये आयी थी... अमरकुमार ने कहा : 'आज भोजन नहीं करना है... तू वापस ले जा।'
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