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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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को भी थोड़ा ही खाकर उठना पड़ा। भूखे ही घर आये। अपनी बीबी से कहा : 'भूख लगी है, रोटी बना देना ।'
'क्यों? भोजन समारंभ में खाया नहीं ?' बीबी ने पूछा ।
‘समारंभ में तो मात्र भोजन करने का दिखावा किया जाता है, इससे पेट नहीं भरा जाता ।'
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'ठीक बात है आपकी । बादशाह को खुश करने के लिए की गई नमाज़ से खुदा को खुश नहीं किया जा सकता... वह भी दिखावा ही था । इसलिए नमाज़ भी फिर से पढ़ो। यदि भोजन फिर से करना है तो ।' बीबी ने मुल्लाजी को फिर से नमाज़ पढ़वाई |
दिखावा मात्र की श्रद्धा अपेक्षित नहीं है । 'हम परमात्मा के मंदिर में जाते हैं, इसलिए श्रद्धावान् हैं' - 'ऐसा नहीं, 'हमें परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा है, इसलिए हम मंदिर जाते हैं,' श्रद्धा की यह सच्ची अभिव्यक्ति है । 'हमें दुःख मिटाने हैं और सुख जुटाने हैं,' यह प्रज्ञा नहीं है, 'हमें दुःख समता से व धीरता से सहने हैं और सुखों का त्याग करना है,' यह निर्मल प्रज्ञा की सुदृढ़ प्रतिज्ञा है ।
मैं आज तुझे परमात्मश्रद्धा का स्वरूप बताना चाहता हूँ। चूँकि मैं चाहता हूँ कि तू श्रद्धावान बने । मात्र श्रद्धावान नहीं, प्रज्ञावंत वैसा श्रद्धावान ! परमात्मा के प्रति श्रद्धावान हुए बिना परमात्मा की शरणागति स्वीकृत नहीं होगी । परमात्मा की शरण में गए बिना, समर्पण का दिव्य भाव जागृत नहीं होगा । श्रद्धा, शरणागति और समर्पण की क्रमिक विकास यात्रा के बिना परमानंद, आत्मानंद की सच्ची अनुभूति नहीं होगी।
रास्ता सरल है। सरल ही नहीं, सरस है। इस मार्ग में रस की अनुभूति होती है। रसानुभूति के बिना तो मैं तुझे यह मार्ग ही नहीं बताता ! मेरा यह विश्वास कि कोई भी आचरण रसानुभूति के बिना दीर्घ समय नहीं टिक सकता। श्रद्धा रस की जननी है, माता है ! श्रद्धावान शुष्क नहीं होता, रसिक होता है। श्रद्धावान मूढ़ (मूडलेस) नहीं होता, वह तो सदैव प्रसन्न और चेतन होता है। हाँ, दिखावे की श्रद्धा से यह संभव नहीं । आत्मा में से आविर्भूत गुण स्वरूप श्रद्धा चाहिए ।
जब परमात्मश्रद्धा का आविर्भाव होता है तब
१. परमात्मा का पुनः पुनः स्मरण
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