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जिंदगी इम्तिहान लेती है
२९ के जीवन में। निश्चित बात है यह । परमात्मश्रद्धा के सहारे वीरता और धीरता से उन दु:खों को सहने की शक्ति हमें प्राप्त करनी है। दुःखों को जब जाना होगा, जाएँगे, जब तक रहना होगा, रहेंगे, इसकी कोई चिन्ता हमें नहीं करनी है। सुख मिले या नहीं मिले, सुख की कोई अभिलाषा नहीं रखनी है। यह आत्मस्थिति परमात्मश्रद्धा से अवश्य प्राप्त होती है।
सेठ सुदर्शन पर रानी अभया ने झूठा आरोप लगाया था न? राजा ने सजा भी सुना दी थी शूली पर चढ़ाने की। सुदर्शन दोनों समय स्वस्थ रहे थे। न शोक किया था, न रुदन किया था। सुदर्शन प्रज्ञावंत थे, श्रद्धावन्त थे। अकेले नहीं थे, घर में पत्नी थी, पुत्र थे। फिर भी पारिवारिक चिन्ता उनको नहीं थी। पत्नी मनोरमा भी उस विकट परिस्थिति में रोने नहीं लगी थी। परमात्मा के ध्यान में लीन हो गई थी। यह मात्र व्यक्तिगत संकट नहीं था, पारिवारिक संकट भी था, चूंकि सुदर्शन घर के कर्ता-धर्ता थे। उन पर संकट आया था यानी घर पर ही संकट था। सुदर्शन और मनोरमा ने धर्म और अध्यात्म के द्वारा ही समाधान ढूँढ़ा था। पति-पत्नी दोनों के मन अशांत नहीं बने, उद्विग्न नहीं बने, यही धर्म चिंतन का फल था। अध्यात्म दशा की प्रगति थी।
क्या सुदर्शन ने चाहा था कि शूली का सिंहासन बन जाए? नहीं, शूली पे चढ़ने से वे डरे नहीं थे। उनकी निर्मल प्रज्ञा ने आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता समझी थी। परमात्मश्रद्धा ने अभय और अद्वेष प्रदान किया था। मिथ्या आरोप मढ़ने वाली रानी अभया पर उनको द्वेष नहीं था और शूली का उनको भय नहीं था! सुदर्शन निर्दोष घोषित हुए और पारिवारिक संकट टल गया। __ ऐसे एक-दो उदाहरण नहीं है, मात्र प्राचीन काल के ही उदाहरण नहीं हैं, सैंकड़ों उदाहरण मिलते हैं वर्तमान काल में भी। दूसरे उदाहरण ढूँढ़ने से क्या? हम ही उदाहरण बन जायें! भय और लालच से मुक्त होना सर्वप्रथम आवश्यक है। तभी प्रज्ञा निर्मल बनेगी, पवित्र बनेगी।
एक मुल्लाजी थे। बादशाह ने नमाज पढ़ने के लिए मुल्लाजी को बुलाया। मुल्लाजी राजी हो गए। बादशाह से कुछ मिलने की कल्पना ने मुल्लाजी को खुश कर दिया। भोजन भी नहीं किया और मुल्लाजी चल दिये। राजमहल पहुँचे। बादशाह खुश हो जाये, वैसी अच्छी नमाज पढ़ी। नमाज के बाद भोजन समारंभ था। भोजन समारंभ में दूसरे राजा, राजकुमार, नवाबजादे वगैरह निमंत्रित थे, वे लोग थोड़ा-थोड़ा खाकर खड़े हो गये। सबके साथ मुल्लाजी
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