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जिंदगी इम्तिहान लेती है
२८ सुख के अभाव में और दु:खों की उपस्थिति में तेरी स्वस्थता चली तो नहीं जाती है ना? तू दीनता-हीनता की गहरी खाई में तो गिर नहीं जाता है ना? शोक-संताप और रुदन की करुणता तो तेरे मुख पर नहीं छा जाती है ना? प्रज्ञावान और श्रद्धावान सदैव स्वस्थ-प्रसन्न, धीर-वीर और साहसिक होता है।
मुझे रोमन साम्राज्य का वीर पुरुष 'एग्रीपीनस' याद आता है। रोमन सम्राट नीरो जुल्मी सम्राट था। एग्रीपीनस पर कोई सच्चा या गलत आरोप मढ़ा गया और सम्राट ने एग्रीपीनस को देश निकाले की सजा दे दी। सम्राट के सैनिक एग्रीपीनस के घर गए। एग्रीपीनस भोजन करने बैठा ही था। सैनिकों ने कहा : 'सम्राट ने आपको सजा दी है।' __ 'कौन सी सजा? मौत की या देश निकाले की?' खुब स्वस्थता से एग्रीपीनस ने पूछा।
'देश निकाले की,' सैनिकों ने कहा। 'ईश्वर की कृपा!' एग्रीपीनस ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धावान था। वह मानता था कि ईश्वरेच्छा के अधीन होने में जो सुख मिलता है, वैसा सुख कहीं से भी नहीं मिलता।
'अच्छा, तुम लोग कुछ समय के लिए ठहरो, मैं अपने मित्रों के साथ भोजन कर लूँ...!'
'क्षमा करे, सम्राट ने आपको अभी-इसी वक्त अफ्रीका के लिए रवाना हो जाने का हुक्म किया है।' ___ 'अच्छा, चलो! अफ्रीका जाकर भोजन करेंगे! ईश्वर की वैसी इच्छा होगी!' मुख पर स्मित और हृदय में स्वस्थता के साथ एग्रीपीनस बोला और वहाँ से चल दिया। __ एग्रीपीनस श्रद्धावान था, प्रज्ञावान था । उसकी श्रद्धा और प्रज्ञा ने अचानक आए दुःख में दीन नहीं होने दिया, दुर्ध्यान नहीं करने दिया। सम्राट के प्रति उसको गुस्सा नहीं आया, अपने सुख चले जाने से रोना नहीं आया। समस्या का इससे बढ़कर कौन-सा समाधान चाहिए? उसने ईश्वर से प्रार्थना भी नहीं की कि 'हे प्रभो, मेरा संकट दूर कर दो...।' दुःखों से डर कर या सुखों से ललचा कर की हुई प्रार्थना, प्रार्थना नहीं है, मात्र स्वार्थपूर्ति की याचना है। प्रार्थना दुःखों के भय से मुक्त और सुखों की लालसा से मुक्त होनी चाहिए।
दुःख तो जीवन में आएँगे ही। इस समय सुख से ज़्यादा दुःख होंगे मनुष्य
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