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जिंदगी इम्तिहान लेती है
मुझे तो आज तुझे यही लिखना है : 'आत्मानं विद्धि।
उपनिषद के ऋषि का यह वचन कितना यथार्थ है। आत्मा के अज्ञान में से ही सब दुःख जन्मे हैं। अपने को हम जानें । अपने को जाने बिना दूसरों को कैसे जान पाएँगे? असल रूप में नहीं ही जान पाएँगे।
तेरी यह समस्या... अथवा तो मान्यता आज भी हिमालय की तरह अडिग है कि 'मुझे... मेरे व्यक्तित्व को कोई नहीं समझता है... मेरी इच्छाओं को... मेरी अभिलाषाओं को कोई जानना भी नहीं चाहता है...।'
मनुष्य अपनी मान्यता में अडिग रहे-रह सकता है... चूंकि वह स्वतंत्र है। परन्तु मान्यता उसकी सम्यक् है या मिथ्या-इसका निर्णय भी तो होना चाहिए। सबकी सभी मान्यताएँ सम्यक् ही होती हैं - ऐसा तो तू नहीं मान बैठा है न? मुझे तो ऐसा लगता है कि तुझे तेरी इस मान्यता का पुनर्विचार करना चाहिए | उस पुनर्विचार का प्रारंभ 'आत्मानं विद्धि से होना चाहिए । 'नो धाय सेल्फ' से होना चाहिए । 'अप्प दीपो भव' से होना चाहिए।
दूसरी बात : यह दिव्य पुनर्विचार करेगा कौन? तू करेगा? 'तू' कौन? 'तू' जो अभी अपने आपको समझ रहा है वह नहीं, 'तू' यानी आत्मा! आत्मभाव में ही आत्मा को जाना जा सकता है। 'आत्मा आत्मानं वेत्ति' आत्मा आत्मा को जानती है... देखती है। आत्मा को जाने बिना किसी समस्या का स्थाई.. शाश्वत समाधान नहीं मिलेगा... कोई अविनाशी प्रकाश प्राप्त नहीं होगा, कोई तन-मन के दुःखों का अन्त नहीं आएगा। इसलिए कहता हूँ : आत्मा को जान... जो तू स्वयं है। तू अपने आपको... अनन्त चैतन्य शक्ति के स्वामी को जान ले। बस, तेरे व्यक्तित्व को दूसरे जान लेंगे। और, जब तू तेरे भीतरी साम्राज्य में विचरण करने लगेगा तब फिर कोई इच्छा, अभिलाषा... वासना नहीं बचेगी। मेरे प्रिय आत्मन्! अपने भीतर एक ध्रुव... शाश्वत.. अखंड अस्मिता है.... उसके साथ समरस हो जाना है। फिर पल-पल परिवर्तनशील मानसिक विचारों से, तमाम बाहरी हालातों से, उत्थान-पतन से एवं वेदनाओं से उत्तीर्ण हो जाएँगे। सुखी और नाराजगी, हर्ष और शोक इत्यादि भावद्वन्द्वों से अस्पृश्य रहेंगे। हम मात्र ज्ञाता और द्रष्टा बने रहेंगे। ___ अपनी जीवन व्यवस्था कितनी विसंवादी बन गई है? अपने भीतर की दुनिया मलिन हो गई है! जो कुछ हो रहा है दैहिक और मानसिक स्तर से!
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