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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१३ 8 तीर्थयात्रा की सफलता-सार्थकता हमारे भीतर में सोची हुई अनंत-असीम
आत्मशक्ति को उद्घाटित करने में ही समाहित है। ® अपने आप को जानना जरूरी है...। यही तो तमाम उपदेशों का सार है!
स्वयं को नहीं जाना तो फिर संसार को जानने से क्या? स्वयं को पहचान लिया फिर संसार की पहचान क्या काम की? ® अपने भीतर में प्रवाहित अस्मिता में डूब जाना है...। ® आत्मनिष्ठा, आत्मश्रद्धा और आत्मजागृति के बगैर संबंधों में सामंजस्य
स्थापित करना संभव नहीं है। ® इच्छाओं और आकांक्षाओं के बीहड़ वन में भटकनेवाला आदमी पराधीनता
के अलावा सोचेगा भी क्या?
पत्र : ४
प्रिय गुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला! हम एक पवित्र तीर्थ में... भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थ 'अगासी' में आए हैं। तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी का भावलोक बादल बनकर मेरे हृदयाकाश में छा जाता है, मेरी चेतना-मयूरी सचमुच हर्षविभोर बनकर नृत्य करने लगती है। ऐसे तीर्थस्थान यदि अतीन्द्रिय आत्मिक अनुभवों की प्रयोगशाला (लेबोरेटरी) बन जाएँ तो! मुझे लगता है कि जीवन और मुक्ति की कोई अचूक नई राह मिल जाये। अन्यथा ऐसे तीर्थों का क्या मूल्य है? तीर्थयात्रा की सफलता अपराजेय आत्मशक्ति के उदघाटन में, नई आत्मचेतना की जागृति में और असंख्य आंतरिक-उलझनों के निराकरण में है।
तेरा पत्र ध्यान से पढ़ा | मुझे आश्चर्य इस बात का होता है कि तेरे जैसा नौजवान निराश है। बेशक, आज मनुष्य प्रायः दिशाशून्य हो गया है। परन्तु आन्तरिक काम, क्रोध आदि आसुरी परिबलों से पराजित होना और पराजय के करुण गीत गाते रहना... अनन्त आत्मशक्ति का अनादर नहीं है क्या? सच्ची और सही बात तो यह है कि हमें अपनी आन्तर-बाह्य दुर्बलताओं और उलझनों से ऊपर उठकर आत्मशक्ति का स्वामित्व प्राप्त करना ही होगा।
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