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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१५
कि जो भूमिका अज्ञान से आवृत है। नहीं रहा है ज्ञाताभाव, नहीं रहा है द्रष्टाभाव। कर्ताभाव और भोक्ताभाव में हम बुरी तरह से फँस गए हैं ।
प्रतिपक्षी यदि अहंकारी है, हमारा जवाब भी अहंकार है । प्रतिपक्षी यदि रागी-द्वेषी है, हमारा प्रत्युत्तर भी राग-द्वेष है । प्रतिपक्षी अत्याचारी है, हमारा उत्तर भी अत्याचार है । ये ही हमारी क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ हैं । ये ही हमारे आघात और प्रत्याघात हैं। इसमें कहाँ है आत्म-ज्ञान ?
अखंड और अटूट आत्मनिष्ठा... आत्मश्रद्धा के बिना, प्रतिक्षण आत्मजागृति के बिना व्यक्ति व्यक्ति के बीच संवादिता .... सम्बन्धों की सम्यक् स्थापना नहीं हो सकती है। इस बुनियादी बात को छोड़कर, इससे भिन्न ज्ञान - विज्ञान के द्वारा निर्धारित पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय व्यवस्था, दंभपूर्ण और स्वार्थपूर्ण व्यवस्था का शिकार ही होगी।
एक बात बीच में कर दूँ? मेरे इस पत्र से तू मुझसे नाराज नहीं होना । मुझ पर भी तेरी वह मान्यता 'मुझे कोई नहीं समझता...' मत थोपना । मैं तुझे समझता हूँ... भलीभाँति समझकर ही तुझे समझाने का प्रयत्न करता हूँ। मैं तेरी परिस्थितियों से अनभिज्ञ भी नहीं हूँ । मेरे दिल की गहराइयों में तेरे प्रति मैत्री और करुणा की गंगा अनवरत प्रवाहित है... मात्र तेरे प्रति ही नहीं, जीवमात्र के प्रति ।
आयुष्यमान ! निरीहभाव से जीवन व्यतीत करो। अभीष्ट स्वतः ही आ मिलेगा। मन की असंख्य इच्छाओं को बाधक मत बनाओ । इच्छाओं से मुक्त .... सहज और स्वाभाविक जीवन जीओ | असंभव नहीं है यह बात । जब रामचन्द्रजी ने वनवास में जाने का निर्णय किया था... वे सहजरूप से चले गए थे। सीताजी भी सहजभाव से ही उनके पीछे चली गई थी... पढ़ा है, उनका वनवास का जीवन ? कितने निरीह भाव से उन्होंने जीवन व्यतीत किया था । और लक्ष्मण ने? न तो थी उनको अपने सुखों की स्पृहा ... न था उनको अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को उभारने की कामना ! निष्काम वृत्ति से लक्ष्मण रामचन्द्रजी का अनुसरण कर रहे थे।
क्या अपने लिए यह संभव नहीं है ? तू कह देगा : 'हाँ' मेरे लिए तो संभव नहीं...।' कोई बात नहीं। इच्छाओं के... वासनाओं के जंगल में भूला पड़ा हुआ मनुष्य... दूसरा सोच भी क्या सकता है ? फिर तू हो, मैं हूँ या कोई भी और हो ।
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