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जिंदगी इम्तिहान लेती है वर्तमान में जो सुख-सुविधा के साधन हमारे पास है, सहजतया उपलब्ध है,
उनका मूल्यांकन करना चाहिए। ® सर्वगुण संपन्न व्यक्ति इस दुनिया में मिलना संभव नहीं है... अरे, हम खुद
भी तो वैसे गुण संपन्न कहाँ है? ® जो नहीं है... जो नहीं मिला है... उसके गिले-शिकवे में सिसकने की बजाय
जो मिला है... जितना मिला है... जैसा मिला है... उसके लिए परमात्मा का शक्र अदा करना सीखें। ® जो व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से प्रेम-स्नेह व सद्भाव देने वालों का आदर या
मूल्यांकन नहीं कर सकता है... वह परोक्ष तत्त्व परमात्मा या धर्म का मूल्य
समझेगा भी तो कैसे? ® कल्पना के जगत से वास्तविक दुनिया का फासला बड़ा भारी होता है।
पत्र : ३
प्रिय गुमुक्षु।
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिल गया था, प्रत्युत्तर विलंब से दे रहा हूँ, कुछ परिस्थितिवश! तेरा पत्र पढ़कर मुझे अति प्रसन्नता हुई। पत्र में सरलता है, स्वाभाविकता है... साहजिकता है। नहीं है दंभ, नहीं है आक्षेप, नहीं है भाषा का आडंबर... तूने अपना हृदय खोलकर मेरे सामने रख दिया है... चिन्ता नहीं करना, तेरे कोमल हृदय को कोई आघात नहीं होगा। तेरी वेदनाओं के प्रति मेरी संवेदनाएँ हैं... तेरा और मेरा किसी एक सूक्ष्म भूमिका पर संबंध स्थापित हो गया है। यही तो प्रेरक तत्त्व है इस पत्रलेखन में! ___ तेरे विचारों के अनुकूल वातावरण तू चाहता है न? वैसा वातावरण नहीं मिल रहा है - इसलिए तू अशांति अनुभव कर रहा है न? दुःख अनुभव कर रहा है न? इसका अर्थ यह है कि तू मानसिक स्तर पर दुःखी है। वर्तमान में तू ऐसे मानसिक दुःखों की स्मृति में और भविष्यकालीन सुखों की कल्पना में खोया हुआ है। इससे तेरा वर्तमान भी दुःखमय हो गया है। तेरे पास सुख के अनेक साधन उपलब्ध होने पर भी, तू उन साधनों से सुखानुभव नहीं कर रहा है। एक बात मत भूल जाना कि सुख के जो साधन सहज रूप से तेरे पास
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