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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१९२ है। दूसरे को अपराधी सिद्ध करना और अपने आपको निरपराधी सिद्ध करने की आदत बहुत बुरी है। मूर्ख, अज्ञानी और महत्त्वाकांक्षी मनुष्यों की ऐसी आदत होती है, मुमुक्षुओं की, परमपंथ के यात्रियों की ऐसी आदत नहीं होनी चाहिए | जब तक जीवात्मा है... संसारी है, तब तक हम अपराधी ही हैं। ठीक है, दुनिया की निगाहों में कभी हम निरपराधी बन सकते हैं, परन्तु आन्तरनिरीक्षण करने पर दिखाई देगा कि हम अपराधी हैं। इसलिए कभी आपस में या दूसरों के सामने कौन अपराधी है, किसकी गलती है-इस विषय की चर्चा करना ही नहीं। दूसरे का अपराध सिद्ध करने में अपनी महानता सिद्ध नहीं होती, अपना अहंकार अवश्य पुष्ट होता है।
तुम दोनों में सोचने की क्षमता है। तुम दोनों अच्छे अध्ययनशील हो! तुम दोनों पर दूसरों की जिम्मेदारियाँ भी है। कितने वर्षों से तुम दोनों के बीच प्रगाढ़ स्नेह-सम्बन्ध है! जब से मैंने तुम दोनों को देखा है तब से... करीबन ३० वर्षों से तुम दोनों की घनिष्टता मैंने देखी है!
एक सावधानी तो अनिवार्य है - आपस का मतभेद या मनभेद व्यवहार में अभिव्यक्त नहीं होना चाहिए। तुम दोनों के साथ और आस-पास अनेक दूसरे मुमुक्षु हैं... सभी परिपक्व बुद्धि के नहीं है। तुम दोनों का आपस का व्यवहार यदि वे लोग विपरीत पायेंगे तो गलत कल्पनायें करेंगे और निन्दा-विवाद में फँस जायेंगे।
परन्तु यह आसान काम नहीं है। मनभेद का प्रतिबिंब व्यवहार पर नहीं पड़ने देना, यह काम अशक्य नहीं है तो भी मुश्किल अवश्य है | मुश्किल कार्य भी कभी करना पड़ता है ना? यह समय ऐसा आ गया है... तुम दोनों को मुश्किल कार्य करने हैं।
प्रवृत्तिमार्ग ही ऐसा है! भले शुभ प्रवृत्ति का मार्ग हो, द्वन्द्व उभरते रहेंगे। विसंवाद पैदा होते रहेंगे। जब तक दूसरों से काम लेना होगा, जब तक परसापेक्षता बनी रहेगी तब तक विवाद-विसंवाद उभरते रहेंगे। ऐसी परिस्थिति में उदार... विशाल मन से समाधान करते रहना पड़ता है। जब कोई विवाद पैदा हो, शीघ्र ही समाधान कर लो। पहले अपने मन का समाधान कर लो! ज्ञानदृष्टि से समाधान कर लो | समाधान में शान्ति है, समाधान में समता और प्रसन्नता है।
व्रत है, नियम है, तप है, त्याग है, ज्ञान है और जप-ध्यान है... फिर भी हृदय में उपशमरस नहीं है... फिर भी मन प्रफुल्लित नहीं है... फिर भी
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