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जिंदगी इम्तिहान लेती है वाले बोल ही नहीं सकते कि 'हमें मोक्ष प्यारा है!' जिसको मोक्ष प्यारा लगा उसको वैषयिक सुख प्यारे कैसे लग सकते हैं?
वैषयिक सुखों का उपभोग करना एक बात है, वैषयिक सुखों का अनुराग होना दूसरी बात है। बिना अनुराग भी उपभोग हो सकता है। आन्तर निरीक्षण यह करना कि वैषयिक सुखों का उपभोग कैसे होता है। अनुराग से होता है या बिना अनुराग होता है । 'मुझे वैषयिक सुख नहीं चाहिए...' यह निर्णय हो जाने पर वैषयिक सुखों के प्रति अनुराग नहीं हो सकता है | __ परंतु यह तो हुई सिद्धान्त की बात! अपनी क्या स्थिति है? पाँच इन्द्रियों के विषयसुख प्यारे लगते हैं! कोई अपनी प्रशंसा करता है तो खुशी होती है न? कोई श्रेष्ठ... उत्तम रूप सामने आये तो देखने में खुशी होती है न? प्रिय भोजन मिलने पर प्रसन्नता होती है न? मुलायम स्पर्श का सुख मिलने पर प्रसन्नता होती है न? हृदय में वैषयिक सुखों का अनुराग बना हुआ है! इस अनुराग को तोड़ना अनिवार्य है... चूंकि सारे मानसिक दु:खों का कारण है वह अनुराग | एक सुख का अनुराग भी जीव को दुःखी कर देता है | जो सुख प्रिय है, वह सुख नहीं मिलता है तो दुःख होता है, वैसे वह सुख चला जाता है तो भी दुःख होता है। जीवनयात्रा में ऐसे अनेक अनुभव तूझे भी हुए होंगे। इसलिए यदि दुःखों से मुक्त होना है तो सुखों का और सुखों की कामनाओं का विसर्जन करना ही होगा।
धीरे-धीरे सुखों के बिना जीवन जीने की आदत डालनी पड़ेगी। कम से कम सुखों का उपयोग-उपभोग करना होगा। बिना माँगे सुख सामने आये तो भी स्वीकार नहीं करना होगा। तू कहेगा 'गृहस्थ जीवन में ऐसा करना मुश्किल है।' नहीं, दृढ़ संकल्प करने पर मुश्किल नहीं है | चाहिए दृढ़ संकल्प
बल!'
एक सिद्धान्त मान लेने पर मुश्किल कार्य भी सरल बन जाता है। वह सिद्धान्त है, पुण्य-पाप का सिद्धान्त! पुण्यकर्म के उदय से जीवात्मा को सुखसमृद्धि प्राप्त होती है, जब पुण्यकर्म समाप्त हो जाता है, सुख-समृद्धि चली जाती है... पता नहीं लगता कि पुण्यकर्म कब समाप्त हो जायेगा... पुण्यकर्म समाप्त होने पर सुख चला जाय, इससे तो यह अच्छा कि पुण्यकर्म होते हुए हम सुखों का त्याग कर दें। यह त्याग तभी संभव है कि हम सुखों के अनुरागी नहीं रहें।
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