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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१६८ अपने आपका विसर्जन यानी अपने देहाभिमान का विसर्जन! अपने रूपाभिमान का, बलाभिमान का विसर्जन! अपने व्यक्तित्व के व्यामोह का विसर्जन! मनुष्य अपने व्यक्तित्व से मोह करता है। जब किसी के द्वारा उसके व्यक्तित्व का खंडन होता है, वह दुःखी होता है। जब किसी के द्वारा उसके व्यक्तित्व का अभिनन्दन नहीं होता है, वह अतृप्ति की वेदना अनुभव करता है। अपने व्यक्तित्व की प्रशंसा को वह सुख मानता है। यह सुख कितना क्षणिक है और कितना दु:खदायी है, यह बात तुझे अच्छी तरह समझनी होगी और उस सुख का विसर्जन करना होगा। सुख के विसर्जन से तुझे अपूर्व आत्मप्रसन्नता का अनुभव होगा। आत्मप्रसन्नता उस सुखानुभव से बहुत ही ज्यादा आनंदप्रद होगा। चूँकि आत्मप्रसन्नता में निर्भयता होती है। निश्चितता और स्वाधीनता होती है। तुम्हारे बाह्य व्यक्तित्व का लोप होने पर भी तुम्हें कोई दुःख स्पर्श नहीं कर सकेगा।
आन्तरशान्ति, आन्तरप्रसन्नता... परमानन्द अनुभव करने के लिए बाह्य भौतिक-वैषयिक सुखों का विसर्जन करना ही होगा। अथवा, परमानन्द के अनुभव की तीव्र अभिलाषा जागने पर वैषयिक सुख स्वयं बिखर ही जायेंगे! उन सुखों को पकड़ कर रखने की चेष्टा नहीं होगी। तू स्वेच्छा से सुखों का त्याग कर, अनुभव करना कि तुझे कितना और कैसा आनन्द हुआ । अनिच्छा से सुख चले जाने पर दुःख होगा, स्वेच्छा से सुख का त्याग करने पर आनन्द होगा।
प्रिय मुमुक्षु, मोक्षयात्रा में तीव्र गति तभी आयेगी जब सुखों का विसर्जन होगा। जीवनयात्रा तभी आनन्दप्रद बनेगी जब तू सुखों को बिखेरता चलेगा। सुखों का संग्रह नहीं करना है, सुखों के परिग्रही नहीं बनना है, सुखों को निरंतर बिखेरते रहना है। श्रमण भगवान महावीर ने सभी सुख बिखेर दिये थे न? शरीर पर एक वस्त्र भी नहीं रखा था... भोजन के लिये एक पात्र भी नहीं रखा था। एक उत्कृष्ट आदर्श प्रस्थापित कर दिया भगवंत ने। उस आदर्श तक पहुँचने के लिये अपनी तत्परता है?
सुखों का त्याग करने से पूर्व, सुखों की आसक्ति का त्याग करना आवश्यक होता है। भिन्न-भिन्न सुखों की आसक्ति-ममता तोड़ना अनिवार्य है, यदि मोक्षयात्रा करनी है तो। करनी है मोक्षयात्रा? जाना है मोक्ष में? यदि भौतिक-वैषयिक सुख प्रिय लगते हैं और वे सुख पाने की ही तमन्ना बनी रहती है तो कैसे माना जाये कि मोक्ष प्यारा लगा है! दिन-रात वैषयिक सुखों की ही कामना करने
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