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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१७० __तुझे लगेगा कि आज मैंने उपदेश ही दे दिया! कोई प्रासंगिक घटना नहीं लिखी! सच है, प्रासंगिक घटनायें अनुकूल-प्रतिकूल घटती ही रहती है... उन घटनाओं को लेकर राग-द्वेषमूलक चिंतन नहीं करना चाहिए परन्तु ऐसा चिंतन करना चाहिए की राग-द्वेष की जड़ें ही कट जाय | आज मैंने जो सुखों के विसर्जन के बारे में लिखा है, यह ऐसा ही एक चिंतन है। हर प्रासंगिक घटना के साथ जोड़ा जा सकता है यह चिंतन। पर्युषण महापर्व आये और गये! अब आ रहे हैं, बाहर गाँव के यात्री!
पर्युषण के पश्चात् प्रवचन भी शुरू हो गये हैं। 'प्रशमरति' विवेचन लिखने का कार्य भी शुरू हो गया है। प्रवचन भी 'प्रशमरति' ग्रन्थ पर ही चल रहे हैं। कभी-कभी प्रशमभाव में डूबने का-तैरने का मजा भी आ जाता है। ___ एक बात निश्चित है कि आत्मानन्द... परमानन्द अनुभव करने के लिए बाह्य घटनाओं से मन को मुक्त रखना ही होगा। बाह्य घटनाओं को विशेष महत्त्व नहीं देना। सुख-दुःख के विचारों से शीघ्र मुक्ति पा लेनी चाहिए | मैं चाहता हूँ कि तेरा मन सदैव प्रशमभाव में निमग्न रहे और तू आत्मानन्द की अनुभूति करता रहे।
९-९-७९, डीसा
- प्रियदर्शन
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